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अध्याय।
सुबोधिनी टीका।
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अर्थ-जो उपब्रहण (उपगूहन) गुण कहा गया है वह भी सम्यग्दृष्टिका गुण है। सम्यग्दृष्टिके गुणोंमें यह भी गुण गिना गया है, यह दोषाधायक नहीं है।
स्थितिकरण अंगका निरूपणसुस्थितीकरणं नाम गुणः सम्यग्दृगात्मनः। धर्माच्च्युतस्य धर्मे तत् नाऽधर्मेऽधर्मणः क्षतेः ॥७९०॥
अर्थ-स्थितिकरण गुण भी सम्यग्दृष्टिका गुण है। धर्मसे जो पतित हो चुका है अथवा पतित होनेके सन्मुख है उसे फिर धर्ममें स्थित कर देना इसीका नाम स्थितिकरण है। किन्तु अधर्मकी क्षति होने पर अधर्ममें स्थित करनेको स्थितिकरण नहीं कहते हैं।
. अधर्म सेवन धर्मके लिये भी अच्छा नहीं हैन प्रमाणीकृतं वृद्धैर्धर्मायाधर्मसेवनम् ।।
भाविधर्माशया केचिन्मन्दाः सावद्यवादिनः॥ ७९१॥
अर्थ-धर्मके लिये भी अधर्मका सेवन करना वृद्ध पुरुषोंने स्वीकार नहीं किया है। आगामी कालमें धर्मकी आशासे कोई मूर्ख-अधर्म सेवनका भी उपदेश देते हैं।
परस्परेति पक्षस्य नावकाशोत्र लेशतः। मूर्खादन्यत्र नो मोहाच्छीतार्थ वन्हिमाविशेत् ॥ ७९२॥ ...
अर्थ- 'अधर्म सेवनसे परम्परा धर्म होता है, इस प्रकार परम्परा पक्षका लेशमात्र भी यहां अवकाश नहीं है। मूर्खको छोड़ कर ऐसा कौन पुरुष है जो मोहसे शीतके लिये वन्हिमें प्रवेश करै । भावार्थ-जैसा कारण होता है उसी प्रकारका कार्य होता है, ठण्डका चाहने वाला उन्हीं पदार्थोका सेवन करेगा जो ठण्डको पैदा करने वाले हों, ठण्डका चाहनेवाला उष्ण पदार्थों (अग्नि आदिक)का कभी सेवन नहीं करेगा। इसी प्रकार धमको चाहने वाला धर्मका ही सेवन करेगा। क्योंकि धर्म सेवनसे ही धर्मकी प्राप्ति हो सकती है, अधर्म सेवनसे धर्मकी प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। जो लोग अधर्म सेवनसे धर्म बतलाते हैं वे कीकरके वृक्षसे आम्रकी प्राप्ति बतलाते हैं, परन्तु यह उनकी भारी भूल है। कीकरके वृक्षसे सिवा काटोंके और कुछ नहीं मिल सकता है।
नैतडर्मस्य प्राग्रूपं प्रागधर्मस्य संवनम् ।
व्याप्तेरपक्षधर्मत्वाखेतोर्वा व्यभिचारतः ॥ ७९३ ॥
अर्थ-अधर्मका सेवन धर्मका प्रारूप भी नहीं है। क्योंकि अधर्मसेवनरूप हेतु विपक्षभूत-अधर्मप्राप्तिमें भी रह जाता है इसलिये व्यभिचारी है इसीसे अधर्मसेवन और धर्मप्राप्तिकी व्याप्ति भी व्यभिचरित है । भावार्थ-मीमांसकादि दर्शनकार यागादिमें हिंसारूप अधर्मसेवनसे धर्मप्राप्ति मानते हैं और उसी यागादिका फल स्वर्गप्राप्ति बतलाते हैं। आचार्य कहते