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पञ्चाध्यायी।
[दूसरा
प्रत्यक्ष ही दीखता है। जब सामान्य मन्त्रों द्वारा ऐसे २ कार्य देखे जाते हैं तो महान् आर्ष मन्त्रों द्वारा बहुत बड़े कार्य सिद्ध हो सकते हैं, आजकल नावह श्रद्धा है और न शक्ति है इसी लिये मन्त्रोंसे हम लोग कोई कार्य नहीं कर सकते हैं।
वात्सल्यके भेदतद्विधाऽथ च वात्सल्य भेदात्स्वपरगोचरात् ।
प्रधानं स्वात्मसम्बन्धि गुणो यावत्परात्मनि ॥ ८१०॥
अर्थ-अपने और परके भेदसे वात्सल्य अंग भी दो प्रकारका है । आत्म सम्बन्धी वात्सल्य प्रधान है परात्म सम्बन्धी गौण है।
स्वात्म सम्बन्धी वात्सल्यपरीषहोपसर्गायैः पीडितस्यापि कुत्रचित् ।
न शैथिल्यं शुभाचारे ज्ञाने ध्याने तदादिमम् ॥ ८११ ॥
अर्थ-परीषह और उपसर्गादिसे कभी पीड़ित होनेपर भी अपने श्रेष्ठ आचारमें, ज्ञानमें, ध्यानमें शिथिलता नहीं आने देना इसीका नाम स्वात्म वात्सल्य है। __ इतरत्नागिह ख्यातं गुणो दृष्टिमतः स्फुटम् ।
शुद्धज्ञानवलादेव यतो वाधापकर्षणम् ॥ ८१२॥
अर्थ-दूसरा-परात्मसम्बन्धी वात्सल्य पहले इसी प्रकरणमें कहा जा चुका है। परास्म सम्बन्धी वात्सल्य सम्यग्दृष्टिका निश्चयसे गौण गुण है । क्योंकि शुद्ध ज्ञानके बलसे ही वाधा दूर की जा सकती है। इस लिये आत्मीय शुद्धिका प्राप्त करना ही प्रमुख है।
प्रभावना अंगका रवरूप-- प्रभावनाङ्गसंज्ञोस्ति गुणः सद्दर्शनस्य वै।
उत्कर्षकरणं नाम लक्षणादपि लक्षितम् ।। ८१३ ॥
अर्थ-सम्यग्दृष्टिका प्रभावना अंग भी प्रसिद्ध गुण है। उसका यही लक्षण है कि हर एक धार्मिक कार्यमें उत्कर्ष-उन्नति करना।
धर्मका ही उत्कर्ष अभीष्ट हैअथातद्धर्मणः पक्षे नावद्यस्य मनागपि ।
धर्मपक्षक्षतिर्यस्मादधर्मोत्कर्षपोषणात् ॥ ८१४ ॥
अर्थ-पापरूप अधर्मके पक्षमें किञ्चिन्मात्र भी उत्कर्ष नहीं बढ़ाना चाहिये । क्योंकि अधर्मका उत्कर्ष बढ़ानेसे धर्मके पक्षकी हानि होती है।
प्रभावनाके भेदपूर्ववत्सोपि द्विविधः स्वान्यात्मभेदतः पुनः । तत्रायो वरमादेयः स्यादादेयः परोयतः ॥ ८१५ ॥