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अध्याय।
सुबोधिनी टीका।
क्योंकि विना उपयोग (शुद्धोपयोग)के भी दर्शन मोहनीय कर्मके अनुदय होने पर सम्यक्त्व होता ही है। इसलिये दर्शनमोहाभाव और सम्यक्त्वकी व्याप्ति है, उपयोगके साथ इनकी व्याप्ति नहीं है।
उपयोगके साथ निर्जरादिककी भी व्याप्ति नहीं है.सम्यक्त्वेनाविनाभूता येपि ते निर्जरादयः।
समं तेनोपयोगेन न व्याप्तास्ते मनागपि ॥ ८७७ ॥
अर्थ-सम्यग्दर्शनके साथ अविनाभावसे रहने वाले जो निर्जरा, संवर आदिक गुण हैं वे भी उस उपयोगके साथ व्याप्ति नहीं रखते हैं, अर्थात निर्जरा आदिमें भी उपयोग कारण नहीं है।
सम्यक्त्व और निर्जरादिकी व्याप्तिसत्यत्र निर्जरादीनामवश्यम्भावलक्षणम् । • सद्भावोस्ति नासद्भावो यत्स्यादा नोपयोगि तत् ॥ ८७८॥
बार्थ-सम्यग्दर्शनके होने पर निर्जरा आदिक अवश्य ही होते हैं। सम्यग्दर्शनकी उपस्थितिमें निर्जरादिका अभाव नहीं हो सकता है। परन्तु उस समय ज्ञान उपयोगात्मक हो
अथवा न हो कुछ नियम नहीं है। अर्थात् शुद्धोपयोग हो या न हो निर्जरादिक सम्यक्त्वके * अविनाभावी हैं। उनमें उपयोग कारण नहीं है।
इसीका स्पष्टीकरणआत्मन्येवोपयोग्यस्तु ज्ञानं वा स्यात्परात्मनि । सत्सु सम्यक्त्वभावेषु सन्ति ते निर्जरादयः ॥ ८७९ ॥
अर्थ-ज्ञान चाहे स्वात्मामें ही उपयुक्त हो चाहे वह परात्मा (पर पदार्थ) में भी उपयुक्त हो, सम्यग्दर्शनरूप भावोंके होनेपर ही निर्जरादिक होते हैं। भावार्थ-उपर्युक्त छह श्लोकों में जो कुछ कहा गया है उसका सार यही है कि ज्ञान चाहे निनात्मा (शुद्धात्मानुभव) में उपयुक्त हो चाहे पर पदार्थोमें भी उपयुक्त हो वह गुण दोषोंमें कारण नहीं है। उपरके श्लोकोंमें गुणोंका कथन किया गया है। निरादि गुणोंमें जीवके सम्यग्दर्शनरूप परिणाम ही कारण हैं स्वात्मोपयोग कारण नहीं है।
पुण्य और पापबन्धमें कारणयत्पुनः श्रेयसो बन्धो बन्धश्चाऽश्रेयसोपि वा।
रागादा द्वेषतो मोहात् स स्यात् स्यानोपयोगसात् ॥८४० अर्थ-जिस प्रकार निर्जरादिक गुणोंमें उपयोग कारण नहीं है। उसी प्रकार पुग्यबन्ध और पापबन्धमें भी वह कारण नहीं है । पुण्यबन्ध और पापबन्ध रागद्वेष मोहसे होते हैं, वे उपयोगाधीन नहीं होते।