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दसरा
पश्चाध्यायी। उपयोगके साथ कर्मोंकी सर्वथा व्याप्ति नहीं हैअव्याप्तिश्चोपयोगेपि विद्यमानेष्टकर्मणाम्। बन्धो नान्यतमस्यापि नावन्धस्तत्राप्यसति ॥ ८९७॥
अर्थ-उपयोगके साथ द्रव्यकर्मोकी व्याप्ति नहीं है। उपयोगके विद्यमान रहने पर भी अष्ट कोका बन्ध नहीं होता है, अष्ट कर्मोंमेंसे किसी एक कर्मका भी बन्ध नहीं होता है। और उपयोगके नहीं होने पर भी आठों कर्मोका बन्ध होता है। भावार्थ-सिद्धावस्थामें शुद्धोपयोग तो है परन्तु अष्टकर्मीका वहां बन्ध नहीं है और मिथ्यात्व अवस्थामें शुद्धोपयोगका अभाव है परन्तु अष्ट कर्मोंका बन्ध है । इसलिये उपयोग और कर्मोकी व्याप्ति नहीं है। इसीका खुलासा नीचे किया जाता है।
यहा स्वात्मोपयोगीह कचिन्नानुपयोगवान् । व्यतिरेकावकाशोपि नार्थादत्रास्ति वस्तुतः ॥ ८९८ ॥
अर्थ-अथवा मिथ्यात्व अवस्थामें अष्टकर्मोका बन्ध रहते हुए भी आत्मा निनात्माका अनुभव नहीं करता है, और कहीं पर 'सिद्धावस्था' में अष्टकर्मोका अभाव होने पर भी निजात्माका अनुभव करता है । इसलिये यहांपर व्यतिरेकका अवकाश भी नहीं है । भावार्थमिथ्यात्वावस्थामें अष्टकर्मका बन्ध रहने पर भी शुद्धोपयोग नहीं है इसलिये अन्वय नहीं बना,.
और सिद्धावस्थामें बन्धाभावमें भी उपयोगका अभाव नहीं हुआ इसलिये व्यतिरेक नहीं बना । अतएव उपयोग और कर्मबन्धकी व्याप्ति नहीं है।
सारांशसर्वतश्चोपसंहारः सिडश्चैतावतात्र वै।
हेतुः स्यान्नोपयोगोयं दृशो वा बन्धमोक्षयोः ॥ ८९९॥
अर्थ-उपर्युक्त सम्पूर्ण कथनका उपसंहार-सारांश यही निकला कि उपयोग सम्यग्दर्शनका कारण नहीं है और न वह बन्ध तथा मोक्षका ही कारण है।
___ शंकाकारननु चैवं स एवार्थो यः पूर्व प्रकृतो यथा । कस्यचिद्वीतरागस्य सदृटज्ञानचेतना ॥ ९००॥ आत्मनोऽन्यत्र कुत्रापि स्थिते ज्ञाने परात्मसु । ज्ञानसश्चेतनायाः स्यात् क्षतिः साधीयसी तदा ॥९०१॥
अर्थ-शंकाकारका कहना है कि वही अर्थ निकला जो पहले प्रकरणमें आया हुआ था, अर्थात् किसी वीतराग सम्यग्दृष्टिके ही ज्ञानचेतना होती है, क्योंकि ज्ञानोपयोग जत्र आत्माको छोड़कर अन्य बाह्य पदार्थोंमें चला जायगा तो उस समय ज्ञानचेतनाकी क्षति अवश्य ही होगी।