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अध्याय ]
सुवोधिनी टीका ।
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भावार्थ - यहां पर यह शंका की गई है कि जिस प्रकार सम्यग्दर्शनरूप कारणसे अष्ट कर्मों की निर्जरा होती है उसी प्रकार ज्ञान चेतना भी अष्ट कर्मोंकी निर्जरामें कारण है इसी आशयको हृदय में रखकर दूसरे श्लोकमें यह शंका की गई है कि सम्यक्त्वके रहते हुए भी जब शुद्धात्मासे हटकर उपयोग केवल बाह्य पदार्थों में चला जाता है तो उस समय उपयोगात्मक ज्ञान चेतनाकी तो क्षति हो ही जाती है, साथमें ज्ञानचेतनाकी क्षति हो जानेसे निर्जरादिकी भी क्षति हो जानी चाहिये ?
उत्तर
सत्यं चापि क्षतेरस्याः क्षतिः साध्यस्य न कचित् । इयानात्मोपयोगस्य तस्थास्तत्राप्यहेतुता ॥ ९०२ ॥ साध्यं यद्दर्शनाडेतोर्निर्जरा चाष्टकर्मणाम् । स्वतो हेतुवशात्छते तद्धेतुः स्वचेतना ॥ ९०३ ॥
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अर्थ – आचार्य कहते हैं कि ठीक है, उपयोगात्मक ज्ञानचेतनाकी क्षति होनेपर भी सम्यक्त्व हेतुका साध्यभूत अष्ट कर्मोंकी निर्जराकी क्षति नहीं होती है । क्योंकि ज्ञानचेतनाका कर्म निर्जरा कारण न होना ही उपयोग ' शुद्धोपयोग ' का स्वरूप है । यहां पर साध्यअष्टकमकी निर्जरा है, और उसका कारणरूप हेतु सम्यग्दर्शन है, शक्ति होने से स्वतः भी होता है और ध्यानादि प्रयत्नसे भी होता है, कारण नहीं है । भावार्थ- पहले भी यह बात कही गई है कि उपयोग नहीं है, और यहां पर भी उसी बातका विवेचन किया गया है कि अष्ट कर्मोकी निर्जरा सम्यक्त्वरूप कारणात्मक हेतुसे होती है और ध्यानादि कारणों से भी होती है परन्तु ज्ञानचेतनारूप उपयोग उसमें कारण नहीं है, उपयोगका कार्य केवल निजात्मा और परपदार्थों का
वह साध्य आत्मामें किन्तु उसमें ज्ञानचेतना
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गुण दोषोंमें कारण
जानना मात्र है । इसलिये जब ज्ञानचेतना निर्जरामें कारण ही नहीं है तत्र शंक. रका यह कहना कि " उपयोगको बाह्य पदार्थ में जानेसे ज्ञनचेतनाको क्षतिके साथ ही अष्ट कर्मोंकी निर्जराकी भी क्षति होगी " सर्वथा निर्मूल है। क्योंकि निर्जरा ज्ञानचेतनाका साध्य ही नहीं है।
शंकाकार—
ननुचेदाश्रयासिडो विकल्पो व्योमपुष्पवत् ।
तत्किं हेतुः प्रसिडोस्ति सिद्धः सर्वविदागमात् ॥ ९०४ ॥
अर्थ – यहां पर स्वतन्त्र शंका यह है कि आपने (आचार्यने) जो मत्यादिक ज्ञानोंको संक्रमणात्मक व विकल्पात्मक बतलाया है वह ठीक नहीं है, क्योंकि विकल्प कोई पदार्थ ही * तत्राप्यहेतुतः, यह पाठ मूल पुस्तक में है । संशोधित में अहेतुता पाठ है ।
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