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अध्याय।
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सुबोधिनी टीका।
औपशमिक भावका स्वरूपकर्मणां प्रत्यनीकानां पाकस्योपशमात् स्वतः ।
यो भावः प्राणिनां स स्यादौपशमिकसंज्ञकः ॥ ९६८ ॥
अर्थ-विपक्षी कर्मों के पाकका स्वयं उपशम होनेसे जो प्राणियोंका भाव होता है उसीका नाम औपशमिक भाव है । भावार्थ-कर्मों के उपशम होनेसे जो जीवका भाव होता है उतीको औपशमिक भाव कहते हैं । " आत्मनि कमणः स्वशक्तेः कारणवशादनुवतिरुपशमः । ” अर्थात् आत्मामें कर्मकी निज शक्तिका कारणवशसे उदय नहीं होना इसीको उपशम कहते हैं । जैसे कीचसे मिले हुए (खवीले) जलमें फिटकरी आदि द्रव्य डालनेसे कीब जल के नीचे बैठ जाती है और निर्मल जल ऊपर रहता है । इसीप्रकार जिन कर्मोंका उपशम होता है वे उस कालमें उदयमें नहीं आते हैं इसलिये आत्मा उस समय निर्मल जलकी तरह निर्मल होजाता है।
क्षायिक भावका स्वरूपयथास्वं प्रत्यनीकानां कर्मणां सर्वतः क्षयात् ।
जातो यः क्षायिको भावः शुद्धः स्वाभाविकोऽस्य सः ॥९६९॥
अर्थ- विपक्षी कर्मोंका सर्वथाः क्षय होनेसे जो आत्माका भाव होता है उसे क्षायिक भाव कहते हैं । यह क्षायिक भाव आत्माका शुद्ध भाव है, और उसका स्वाभाविक भाव है। भावार्थ-कर्मोंकी अत्यन्त निवृत्ति होनेसे जो आत्माका भाव होता है उसे ही क्षायिक भाव कहते हैं। जैसे फिटकरी आदिके डालनेसे जिस समय कीचड़ नीचे बैठ जाता है और निर्मल जल ऊपर रहता है उस समय उस निर्मल जलको यदि दूसरे वर्तनमें धीरेसे ले लिया जाय तो फिर वह जल सदा शुद्ध ही रहता है फिर उसके मलिन होनेकी संभावना भी नहीं हो सक्ती है । क्योंकि मलिनता पैदा करनेवाला कीचड़ था वह सर्वथा हट गया है। इसी प्रकार क्षायिक भाव आत्मासे कर्मके सर्वथा हट जाने पर होता है। वह सदा शुद्ध रहता है, फिर वह कभी अशुद्ध नहीं हो सक्ता।
क्षायोपशभिक भावका स्वरूपयो भावः सर्वतो घातिस्पर्धकानुदयोद्भवः ।
क्षायोपशमिकः स स्यादुदयाद्देशघातिनाम् ॥ ९७० ॥
अर्थ-सर्वघाति स्पर्धकोंका अनुदय होने पर और देशघातिस्पर्धकोंका उदय होने पर जो आत्माका भाव होता है उसे ही क्षायोपशमिक भाव कहते हैं। भावार्थ-क्षायोपशमिक भावमें क्षय और उपशमकी मिश्रित अवस्था रहती है। जैसे मलीन जलमें थोड़ी फिटकरी
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