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२३४] पञ्चाध्यायी।
। दूसरा नहीं है जिस प्रकार कि आकाशके पुष्प कोई पदार्थ नहीं है। इसलिये विकल्प शब्दका कोई वाच्य न होनेसे उसे आश्रयासिद्ध ही कहना चाहिये, और जब विकल्प कोई पदार्थ नहीं है तब ज्ञानको सविकल्प कहनेमें सर्वज्ञागम प्रसिद्ध क्या हेतु हो सकता है, अर्थात् कुछ हेतु नहीं होसकता।
उत्तर-- सत्यं विकल्पसर्वस्वसारं ज्ञानं स्वलक्षणात् ।
सम्यक्त्वे यछिकल्पत्वं न तत्सिद्धं परीक्षणात् ॥ ९०५॥
अर्थ-आचार्य कहते हैं कि ज्ञान अपने लक्षणसे विकल्पात्मक कहा जाता है, तथा सम्यक्त्वमें जो विकल्पका व्यवहार होता है वह परीक्षासे सिद्ध नहीं होता। भावार्थ-ज्ञानमें तथा सम्यक्त्वमें नो विकल्पका व्यवहार होता है वह व्योम पुष्पवत् नहीं है किंतु उपचरित है इसी बातको नीचे दिखाते हैं
युत्पुनः कैश्चिदुक्तं स्यात् स्थूललक्ष्योन्मुखैरिह ।
अत्रोपचारहेतुर्यस्तं ब्रुवे किल साम्प्रतम् ॥ ९०६ ॥
अर्थ-जिन लोगोंने स्थूल दृष्टि रख कर सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शनको सविकल्प बतलाया है उन्होंने उपचारसे ही बतलाया है। वास्तवमें सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सविकल्प नहीं हैं। उपचारका भी क्या कारण है ? उसे ही आ बतलाते हैं।
क्षायोपशमिकं ज्ञानं प्रत्यर्थ परिणामि यत् ।।
तत्स्वरूपं न ज्ञानस्य किन्तु रागक्रियास्ति वै ॥९०७॥ .
अर्थ-क्षायोपशमिक ज्ञान जो हर एक पदार्थको क्रम क्रमसे जानता है वह ज्ञानका स्वरूप नहीं है किंतु राग क्रिया है, और यही राग उपचारका हेतु है।
राग क्रिया क्यों है उसे ही बतलाते हैंप्रत्यर्थ परिणामित्वमर्थानामेतदस्ति यत् ।
अर्थमर्थ परिज्ञानं मुह्यद्रज्यद्विषयथा ॥९०८ ॥
अर्थ-पदार्थों में प्रत्येक पदार्थका परिणमन होता है, उस परिणमनमें ज्ञान हरएक पदार्थके प्रति मोह करता है, राग करता है, द्वेष करता है। भावार्थ-पदार्थोंमें इष्टानिष्ट बुद्धि होनेसे किसीमें मोह रूप परिणाम होते हैं, किसीमें रागरूप परिणाम होते हैं और किसीमें द्वेषरूप परिणाम होते हैं।
*वाच्य वाचक सम्बंधकी अपेक्षासे शब्दका वाच्य ही उसका आश्रय होसकता है विकल्प शब्दका कोई वाच्य ही नहीं है अतएव आश्रयासिद्ध दोष आता है।