________________
अध्याय ]
सुबोधिनी टीका। हों अर्थात् भिन्न २ पदार्थोके जुदे २ हों, उन्हें विशेष गुण कहते हैं। विशेष गुण ही वस्तुओंमें परस्पर भेद करानेवाले हैं । जैसे जीवमें विशेषगुण ज्ञान, दर्शन, सुख आदि हैं । पुद्गलमें रूप, रस, गन्ध, वर्ण आदि हैं । इन्हीं सामान्य और विशेष गुणोंके समूहको द्रव्य कहते हैं।
सभी गुण स्वाभाविक हैंसामान्या वा विशेषा वा गुणाः सिद्धाः निसर्गतः। टंकोत्कीर्णा इवाजत्रं तिष्ठन्तः प्राकृताःस्वतः ॥९४८ ॥
अर्थ-जीवके सामान्यगुण अथवा विशेषगुण स्वभाव सिद्ध हैं । सभी गुण टांकीसे उकेरे हुए पत्थरके समान निरन्तर रहते हैं और स्वयं सिद्ध अनादिनिधन हैं।
तथापि प्रोच्यते किञ्चिच्छ्यतामवधानतः। न्यायवलात्तमायातः प्रवाहः केन वार्यते ॥ ९४९ ॥
अर्थ-तथापि उन गुणोंके विषयमें थोड़ासा विवेचन किया जाता है उसे सावधानीसे सुनना चाहिये । गुणोंका प्रवाह न्याय (युक्ति)के बलसे चला आरहा है उसे कौन रोक सकता है ? भावार्थ-द्रव्यकी सहभावी पर्यायको गुण कहते हैं द्रत्यकी अनादि कालसे होनेवाली अनन्त कालतक सभी पर्यायोंमें गुण जाते हैं । गुणोंका नाश कभी नहीं हो सकता है, इसी लिये कहा गया है कि गुणों का प्रवाह न्याय प्राप्त है उसे कौन रोक सकता है।
वैभाविकी शक्तिअस्ति वैभाविकी शक्तिः स्वतस्तेषु गुणेषु च ।
जन्तोः संसृत्यवस्थायां वैकृतास्ति स्वहेतुतः॥९५० ॥
अर्थ-उन्हीं जीवके अनन्त गुणोंमें एक स्वतः सिद्ध वैभाविक नामा शक्ति है। वह शक्ति संसार अवस्थामें अपने कारणसे विकृत ( विकारी ) हो रही है। भावार्थ-वैभाविक भी एक आत्माका गुण है । उस गुणकी दो अवस्थायें होती हैं । आत्माकी शुद्ध अवस्थामें उसकी स्वभाविक अवस्था और आत्माकी अशुद्ध अवस्थामें उसकी वैभाविक अवस्था । अशुद्धताका कारण-राग द्वेषभाव हैं, उन्हीं भावोंके निमित्तपे उस वैभाविक शक्तिका विभावरूप परिणमन होता है । तथा रागद्वेषके अभावमें उसका स्वभाव परिणमन होता है । आत्माकी संसारावस्थामें उसका विभावरूप परिणमन होता है और मुक्तावस्था में स्वभाव परिणमन होता . है। इसलिये स्वाभाविक और वैभाविक ऐसी दो अवस्थायें उसी एक वैभाविक नामा गुण की हैं । कोई स्वाभाविक गुण पृथक् नहीं है।
दृष्टान्तयथा वा स्वच्छताऽऽदर्श प्राकृतास्ति निसर्गतः। तथाप्यस्यास्यसंयोगाबैकृतास्पर्थतोपि सा ॥ ९५१॥