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[ दूसरा
अपि द्रव्यनयाद्देशाकोत्कीर्णोस्ति प्राणभृत् । . नात्मसुखे स्थितः कश्चित् प्रत्युतातीव दुःखान् ॥ ९५६ ॥
पञ्चाध्यायी ।
अर्थ – यद्यपि द्रव्यार्थिक नयसे यह जीव टांकीसे उकेरे हुए पत्थरके समान सदा शुद्ध है तथापि पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे कोई संसारी जीव अपने सुखमें स्थित नहीं है किन्तु उल्टा अत्यन्त दुःखी है ।
अपने स्वरूपमें स्थित समझना भी भूल है.
नाङ्गीकर्तव्यमेवैतत् स्वस्वरूपे स्थितोस्ति ना ।
वडो वा स्यादवडो वा निर्विशेषाद्यथा मणिः ॥ ९५७ ॥
अर्थ — जिस प्रकार मणि मिली हुई ( कीचड़ आदि में ) अवस्था में भी शुद्ध है और भिन्न अवस्था में भी शुद्ध है । उसी प्रकार यह मनुष्य भी चाहे कर्मोंसे बँधा हुआ हो चाहे मुक्त हो सदा अपने स्वरूप में स्थित है ऐसा भी नहीं मानना चाहिये ।
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क्योंकि—
यतश्चैवं स्थिते जन्तोः पक्षः स्याद् वाधितो बलात् । संसृतिर्वा विमुक्तिर्वा न स्याद्वा स्यादभेदसात् ॥ ९५८ ॥ अर्थ-योंकि जीवको यदि सदा शुद्ध माना जाय तो वह मानना न्यायबलसे वाधित है । जीवको सदा शुद्ध माननेसे न तो संसार ही सिद्ध हो सक्ता है, और न मोक्ष ही सिद्ध हो सक्ती है । अथवा दोनोंमें अभेद हो सिद्ध होगा । भावार्थ - संसरणं संसारः परिभ्रमणका नाम ही संसार है, वह बिना अशुद्धता के हो नहीं सक्ता है । और संसारके अभाव में मुक्तिका होना भी असंभव है । क्योंकि मुक्ति संसार पूर्वक ही होती है । जो बंधा ही नहीं है वह मुक्त ही क्या होगा । इसलिये जीवको सदा शुद्ध माननेसे संसार और मोक्ष दोनों ही नहीं बनते हैं अथवा दोनों में कोई भेद सिद्ध नहीं होता है । इसीको स्पष्ट करते हैं—
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स्वस्वरूपे स्थितो ना चेत् संसारः स्यात्कुतो नयात् । हटावा मन्यमानेस्मिन्ननिष्टत्वमहेतुकम् ॥ ९५९ ॥
अर्थ - यदि मनुष्य सदा अपने स्वरूप में ही स्थित रहे अर्थात् सा शुद्ध ही बना रहे तो संसार किस नयसे हो सक्ता है ? यदि जीवको हट पूर्वक ही विना किसी हेतुके शुद्ध माना जाय तो अनिष्टताका प्रसंग आता है । उसे ही दिखाते हैं --
जीवश्चेत्सर्वतः शुद्धो मोक्षादेशो निरर्थकः । नेष्टमिष्टत्वमत्रापि तदर्थं वा वृथा श्रमः ॥ ९६० ॥
अर्थ — यदि जीव सदा शुद्ध है तो फिर मोक्षका आदेश (निरूपण) व्यर्थ है । और
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