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पञ्चाध्यायी 1
ज्ञानेऽथ वर्धमानेपि हेतोः प्रतिपक्षक्षयात् । रागादीनां न हानिः स्याद्धेतोर्मोहोदयात्सतः ॥ ८८९ ॥
अर्थ- - अथवा प्रतिपक्ष कर्म (ज्ञानावरण) के क्षय होनेसे ज्ञानकी वृद्धि होनेपर मोहनीय कर्मके उदय रहनेसे रागादिकोंकी हानि भी नहीं होती है । भावार्थ - एक ही समय ज्ञानावरण कर्मका क्षय और मोहनीयका उदय हो रहा हो तो ज्ञानकी वृद्धि होती है परन्तु रागकी हानि नहीं होती है
कारण मिलनेपर दोनोंकी हानि होती है—
या देवात्तत्सामय्यां सत्यां हानिः समं द्वयोः । आत्माssafraतोर्या ज्ञेया नान्योन्यहेतुतः ॥ ८९० ॥
अर्थ- -अथवा दैववश अपनी २ सामग्रीके मिलनेपर दोनोंकी साथ ही हानि होती हैं । यह हानि वृद्धिका क्रप अपने २ कारणोंसे होता है । एकका कारण दूसरेकी हानि वृद्धिमें सहायक कभी नहीं हो सक्ता ।
उपयोगकी द्रव्य कर्म के साथ भी व्याप्ति नहीं है— व्याप्तिर्वा नोपयोगस्य द्रव्यमोहेन कर्मणा ।
रागादीनान्तु व्याप्तिः स्यात् संविदावरणैः सह ॥ ८९१ ॥
अर्थ - जिस प्रकार रागद्वेषादि भावमोहके साथ उपयोगकी व्याप्ति नहीं है उसीप्रकार द्रव्यमोहके साथ भी उसकी व्याप्ति नहीं है । परन्तु रागादिकों की तो ज्ञानावरणके साथ व्याप्त है ।
[ दूसरा
रागादिकों की ज्ञानावरणके साथ विषम व्याप्ति हैअन्वयव्यतिरेकाभ्यामेषा स्याद्विषमैव तु ।
न स्यात् क्रमात्तथाव्याप्तिर्हेतोरन्यतरादपि ॥ ८९२ ॥ अर्थ — रागादिकों की ज्ञानावरणके साथ अन्वय व्यतिरेक दोनोंसे विषम ही व्याप्ति है। किसी अन्यतर हेतु से भी इन दोनोंकी सम व्याप्ति नहीं है ।
व्याप्तेरसिद्धिः साध्यात्र साधनं व्यभिचारिता ।
सैकस्मिन्नपि सत्यन्यो न स्यात्स्याद्वा स्वहेतुतः ॥ ८९३ ॥
अर्थ — यहां पर समव्याप्तिकी असिद्धि साध्य है और व्यभिचारीपन हेतु है, अर्थात् यदि रागादिक और ज्ञानावरण कर्म इनकी समव्याप्ति मानी जाय तो व्यभिचाररूप दोष आता है वह इस प्रकार आता है- ज्ञानावरण कर्मके रहनेपर रागादिभाव नहीं भी होता है । यदि होता भी है तो अपने कारणोंसे होता है । भावार्थ – “ रागाद्यावरणयोः समव्याप्तेर सिद्धिः व्यभिचारित्वात् ” इस अनुमान वाक्यसे रागादि और आवरण में समव्याप्ति नहीं बनती है । व्याप्ति से यहां पर सम व्याप्तिका ही ग्रहण है ।