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२२८] पञ्चाध्यायी।
(दूसरा बन्धकी व्याप्ति रागादिके साथ हैव्याप्तिर्वन्धस्य रागाद्यैर्नाऽव्याप्तिर्विकल्पैरिव । . विकल्पैरस्य चाऽव्याप्तिर्न व्याप्तिः किल तैरिव ॥८८१ ॥
अर्थ-वन्धकी व्याप्ति (अविनाभाव) रागादिकोंके साथ है। रागादिकोंके साथ उपयोगकी तरह बन्धकी अव्याप्ति नहीं है । और उपयोगके साथ बन्धकी अव्याप्ति है। उपयोगके साथ रागादिककी तरह बन्धकी व्याप्ति नहीं है । भावार्थ-बन्धके होनेमें रागद्वेष कारण हैं। शुभ बन्धमें शुभरागकी तीव्रता और अशुभ कर्मोदयकी मन्दता कारण है और अशुभ बन्धमें अशुभ रागकी तीव्रता और शुभ कर्मोदयकी मन्दता कारण है । परन्तु बन्धमात्रमें उपयोग कारण नहीं है । इसी लिये बन्धका अविनाभाव रागद्वेषके साथ है उपयोगके साथ नहीं है।
राग और उपयोगमें व्याप्ति नहीं हैनानेकत्वमसिद्धं स्यान्नस्याव्याप्तिर्मियोऽनयोः।।
रागादेश्योपयोगस्य किन्तूपेक्षास्ति तद्वयोः ॥ ८८२ ॥ अर्थ-राग और उपयोग इनमें अनेकत्व असिद्ध नहीं है, अर्थात् राग भिन्न पदार्थ है और उपयोग भिन्न पदार्थ है। इन दोनों में परस्पर व्याप्ति भी नहीं है किन्तु राग और उपयोग दोनोंमें उपेक्षा भाव है, अर्थात् दोनोंमें कोई भी दूसरेकी अपेक्षा नहीं रखता है। दोनोंमें कोई सम्बन्ध भी नहीं है। दोनों स्वतन्त्र हैं।
राग क्या पदार्थ हैकालुष्यं तत्र रागादिर्भावश्चौदयिको यतः।
पाकाचारित्रमोहस्य दृङ्मोहस्याथ नान्यथा ॥ ८८३ ॥
अर्थ-आत्माके कलुषित ( सकषाय ) परिणामोंका नाम ही रागादिक है। रागादिक आत्माका औदयिक भाव है। क्योंकि वह चारित्रमोहनीय और दर्शनमोहनीयके पाकसे होता है। अन्यथा नहीं होता। भावार्थ-रागादिकमें आदि पदसे द्वेष और मोहका ग्रहण करना चाहिये । चारित्र मोहनीयकर्मके विपाक होनेसे आत्माके चारित्र गुणके विभाव भावको रागद्वेष कहते हैं । दर्शनमोहनीयकर्मके विपाक होनेसे सम्यग्दर्शनके विभावभावको मोह कहते हैं। ये भावकर्मके उदयसे ही होते हैं इसलिये इन्हें औदयिकभाव कहते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यमिथ्याव, सम्यक्त्व ये सब रागद्वेष मोहरूप औदायिक
उपयोग क्या पदार्थ हैक्षायोपशमिकं ज्ञानमुपयोगः स उच्यते। एतदावरणस्योच्चैः क्षयानोपशमाचतः ॥ ८८४ ॥