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पश्चाध्यायी।
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गुण और दोषमें उपयोग कारण नहीं हैगुणदोषद्वयोरेवं नोपयोगोस्ति कारणम् ।। हेतुर्नान्यतरस्यापि योगवाही च नाप्ययम् ॥ ८७३ ॥
अर्थ-इस प्रकार उपर कहे हुए गुण और दोषोंमें उपयोग ( ज्ञानोपयोग) कारण नहीं है, और न वह उन दोनोंमेंसे किसी एकका हेतु ही है । तथा यह उपयोग दोनोंका सहकारी भी नहीं है । भावार्थ-कारण, हेतु, सहकारी इन तीनोंका मिन्न २ अर्थ है । उत्पन्न करनेवालेको कारण कहते हैं, जैसे धूमकी उत्पत्तिमें अग्नि कारण है, जो उत्पादक तो न हो किन्तु साधक हो उसे हेतु कहते हैं, जैसे पर्वतमें अग्नि सिद्ध करते समय धूम उसका साधक होता है । सहायता पहुंचानेवालेको सहकारी कहते हैं, जैसे घट बनाते समय कुंभकारके लिये दण्ड सहकारी है । उपयोग गुण दोषोंके लिये न तो कारण है न हेतु है और न सहकारीही है ।
सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारणसम्यक्त्वं जीवभावः स्यादस्ताङ्मोहकर्मणः।।
अस्ति तेनाविनाभूतं व्याप्तः सद्भावतस्तयोः॥ ८७४॥
अर्थ-दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम होनेसे सम्यक्त्व नामा जीवका गुण प्रकट होता है । दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमके साथ ही सम्यक्त्वका अविनाभाव है। इन्हीं दोनोंमें व्याप्ति घटित होती है।
दैवादस्तं गते तत्र सम्यक्त्वं स्यादनन्तरम् ।
* दैवान्नास्तंगते तत्र न स्यात्सम्यक्त्वमञ्जसा ॥ ८७५ ॥
अर्थ-दैववश (काल लब्धि आदिक निमित्त मिलने पर ) उस दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम होने पर आत्मामें सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है, और दैववश (प्रतिकूलतामें) उस दर्शन मोहनीयके अस्त नहीं होने पर अर्थात् उदित रहने पर सम्यक्त्व नहीं होता है। भवार्थ-दर्शन मोहनीय कर्मका उदय सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें वाधक है और उसका अनुदय सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें साधक है। - साध तेनोपयोगेन न स्याद् व्यप्तिईयोरपि ।
विना तेनापि सम्यक्त्वं तदस्ते सति स्याद्यतः ॥ ८७३ ॥ अर्थ-उस ज्ञानोपयोगके साथ दर्शन मोहाभाव और सम्यक्त्वकी व्याप्ति नहीं है।
* “ दैवान्नान्यतरस्यापि योगवाही च नाप्ययम् ।" यह पाठ मूल पुस्तकका है। इसका आशय यही है कि उपयोग दर्शनमोहनीयके उदय और अनुदयमें हेतु नहीं है, सहकारी भी नहीं हैं। परन्तु इस बातका कथन नीचेके श्लोकमें आया है तथा दो नकार भी खटकते है इसलिये संशोधित पाठ ही ठोक प्रतीत होता है।