________________
२२४]
पञ्चाध्यायी ।
स्वपरोपयोग गुणदोषाधायक नहीं है
स्वस्मिन्नेवोपयुक्तो वा नोपयुक्तः स एव हि । परस्मिन्नुपयुक्तोवा नोपयुक्तः स एव हि ॥ ८६४ ॥ स्वस्मिन्नेवोपयुक्तोपि नोत्कर्षाय स वस्तुतः ॥ उपयुक्तः परत्रापि नापकर्षाय तत्त्वतः ॥ ८६५ ॥
दूसरा
अर्थ - पहले यह बात कही जा चुकी थी कि क्षयोपशमात्मक ज्ञानकी दो अवस्थायें होती हैं - एक लब्धिरूप, दूसरी उपयोगरूप । ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम से होनेवाली जो आत्मामें विशुद्धि है उसको लब्धि कहते हैं और पदार्थोंके जाननेकी चेष्टा करना उसे उपयोग कहते हैं, अब यहां पर उपयोगात्मक ज्ञानका ही विचार चल रहा है कि वह कभी आत्मामें ही उपयुक्त होता है अर्थात् निजात्माको ही जानता है, और कभी नहीं भी उपयुक्त होता है अर्थात् कभी आत्माको नहीं भी जानता है केवल, लब्धिरूप ही रहता है । अथवा कभी वह पर पदार्थमें भी उपयुक्त होता है और कभी वहां भी उपयुक्त नहीं होता है । जिस समय वह उपयोग निजात्माको जान रहा है उस समय वह कुछ उत्कर्ष पैदा नहीं
*
करता है, और जिस समय वह पर पढ़ार्थको भी जान रहा है उस समय वास्तवमें कुछ
अपकर्ष पैदा नहीं करता है ।
सारांश
तस्मात्स्व स्थितयेऽन्यस्मादेकाकारचिकीर्षया ।
मा सीदसि महाप्राज्ञ सार्थमर्थमवैहि भोः ॥ ८६६ ॥
अर्थ — इसलिये अपने स्वरूप में स्थित रहनेके लिये दूसरे पदार्थसे हटकर एकाकार ( आत्माकार ) के करने की इच्छासे खेद मत कर ! हे महा प्राज्ञ ! सम्पूर्ण पदार्थको पहचान । भावार्थ - शंकाकार स्वात्मोपयोगको ही ज्ञानचेतना समझता था। जिस समय ज्ञानोपयोग पर पदार्थको जानता है उस समय उसे वह ज्ञान चेतना नहीं समझता था, आचार्य उस शंकाकारसे सम्बोधन करके कहते हैं कि तू व्यर्थका खेद मत कर, ज्ञानोपयोगकी तो यह स्वाभाविक महिमा है कि वह स्व- पर सबको जानता है, न तो स्वात्मोपयोग कुछ विशेष गुणोत्पादक है और न पर पदार्थोपयोग कुछ दोषोत्पादक है । ज्ञानका स्वभाव ही ऐसा है । पदार्थका स्वरूप जानकी बड़ी आवश्यकता है ।
ज्ञानका स्वभाव
चर्यया पर्यटन्नेव ज्ञानमर्थेषु लीलया ।
न दोषाय गुणायाथ नित्यं प्रत्यर्थमर्थसात् ॥ ८६७ ॥
अर्थ — ज्ञान सम्पूर्ण पदार्थोंमें लीलामात्रसे घूमता फिरता है, वह प्रत्येक पदार्थको