________________
अध्याय ]
सुबोधिनी टीका ।
[ २२५
जानता हुआ न तो कुछ दोष ही पैदा करता है और न कुछ गुण ही पैदा करता है । अर्थात् हरएक पदार्थको जानना यह ज्ञानका धर्म है । दोष गुणसे इसका कोई सम्बन्ध नहीं है । यहां पर कई श्लोकों में दोष गुणका निरूपण आरहा है, इसलिये यह बता देना आवश्यक है कि दोष से किस दोषका ग्रहण है और गुगसे किस गुणका ग्रहण है ।
दोष - दोषः सम्यग्दृशो हानिः सर्वतोंशांशतोऽथवा । संवराग्रेसरायाश्च निर्जरायाः क्षतिर्मनाक ॥। ८६८ ॥ व्यस्तेनाथ समस्तेन तद्द्वयस्योपमूलनम् |
हानिर्वा पुण्यबन्धस्याहेयस्याप्यपकर्षणात् ॥ ८६९ ॥ उत्पत्तिः पापबन्धस्य स्यादुत्कर्षोऽथवास्य च । तद्द्वयस्याथवा किञ्चिद्यावदुद्वेलनादिकम् ॥ ८७० ॥ अर्थ — सम्पूर्णतासे सम्यग्दर्शनकी हानिका होना, अथवा कुछ अंशोंमें उसकी हानिका होना, संवर और निर्जराकी कुछ हानिका होना, इन दोनोंमेंसे किसी एकका विनाश होना, अथवा दोनोंका ही सर्व देश विनाश होना, अथवा उपादेय - पुण्यबन्धकी हानिका होना, ● अथवा उसका कम रह जाना, अथवा पापबन्धकी उत्पत्तिका होना, अथवा पापबन्धका उत्कर्ष - बढवारी होना, अथवा पापबन्धकी उत्पत्ति और उसके उत्कर्ष रूपमें कुछ उद्वेलन आदिका होना, ये सब दोष कहलाते हैं ।
गुण
गुणः सम्यक्त्वसंभूतिरुत्कर्षो वा सतोंऽशकैः । निर्जराsभिनवा यद्वा संवरोऽभिनवो मनाक ॥। ८७१ ॥ उत्कर्षो वाऽनयोरंशैर्द्वयोरन्यतरस्य वा । श्रेयोवन्धोऽथवोत्कर्षो यद्वा नह्यपकर्षणम् ॥ ८७२ ॥ *
अर्थ — सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिका होना, अथवा उसकी अंशरूपसे वृद्धिका होना, अथवा नवीन निर्जराका होना अथवा कुछ नवीन संवरका होना, अथवा संवर और निर्जरा दोनोंकी अंशरूपसे वृद्धिका होना, अथवा दोनोंमेंसे किसी एकका उत्कर्ष होना, पुण्य बन्धका होना, अथवा उसकी बढ़वारी होना अथवा पुण्य बन्धमें अपकर्ष ( हीनता ) का न होना ये सव गुण कहलाते हैं ।
* मूल पुस्तकमें यद्वा स्यादपकर्षणम् " ऐसा पाठ है परन्तु यहां पर पुण्यबन्धके उत्कर्षको गुण कहा गया है फिर उसके अपकर्षको भी कैसे गुग कहा जासकता है इसलिये उपर्युक्त संशोधित पुस्तकका पाठ ही अनुकल पड़ता है । सुज्ञजन और भी विचारें ।