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अध्याय । ] सुबोधिनी टीका ।
१२२९ अर्थ-सायोपशमिक ज्ञानको उपयोग कहते हैं। यह उपयोग ज्ञानावरण कर्मके क्षय और उपशमसे होता है।
राग और उपयोग भिन्न २ कारणों से होते हैंअस्ति स्वहेतुको रागो ज्ञानं चास्ति स्वहेतुकम् ।
दूरे स्वरूपभेदत्वादेकार्थत्वं कुतोऽनयोः ॥ ८८५ ॥
अर्थ-राग अपने कारणसे होता है और ज्ञान अपने कारणसे होता है। राग और ज्ञान दोनोंका स्वरूप भिन्न भिन्न है इसलिये दोनोंका एक अर्थ कैसे होसक्ता है ?
किश्च ज्ञानं भवदेव भवतीदं न चापरम् ।।
रागादयो भवन्तश्च भवन्त्येते न चिद्यथा ॥ ८८६ ॥
अर्थ-जिस समय ज्ञान होता है उस समय ज्ञान ही होता है उस समय रागद्वेष नहीं होते और जिस समय रागादिक होते हैं उस समय रागादिक ही होते हैं उस समय ज्ञान नहीं होता । भावार्थ-'जिस समय, से यह आशय नहीं लेना चाहिये कि ज्ञानका समय भिन्न है और रागादिकका भिन्न है । समय दोनोंका एक ही है। ज्ञान और रागादिक दोनों ही एक ही समयमें होते हैं परन्तु ज्ञान अपने स्वरूपसे होता है और रागादिक अपने स्वरूपसे होते हैं । अथवा ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे ज्ञान होता है और चारित्र मोहनीय तथा दर्शन मोहनीय कर्मके उदयसे रागद्वेष मोह होते हैं । ज्ञानावरण कर्मकी अधिकतामें ज्ञानका कम बिकाश होता है और उसकी हानिमें ज्ञानका अधिक विकाश होता है। इसी प्रकार रागद्वेष और मोहकी हीनता और अधिकता उनके कारणोंकी हीनता अधिकतासे होती है ।
शानकी वृद्धिभे रागकी वृद्धि नहीं होतीअभिज्ञानं च तत्रास्ति वर्धमाने चितिस्फुटम् । रागादीनामभिवृद्धि नस्याद् व्याप्तेरसंभवात् ॥ ८८७॥
अर्थ-उपर्युक्त कथनका खुल सा दृष्टान्त इस प्रकार है कि ज्ञानकी वृद्धि होनेपर रागादिककी वृद्धि नहीं होती है । क्योंकि इन दोनोंकी व्याप्ति नहीं है। अर्थात् ज्ञानकी वृद्धिसे रागादिकका कोई सम्बन्ध नहीं है।
रागादिकी वृद्धिमें ज्ञानकी वृद्धि नहीं होतीवर्धमानेषु चैतेषु वृद्धिर्ज्ञानस्य न कचित् । __ अस्ति यद्वा स्वसामय्यां सत्यां वृद्धिः समा द्वयोः॥८८८॥
अर्थ-रागादिकोंकी वृद्धि होनेपर ज्ञानकी वृद्धि कहीं नहीं भी होती है, अथवा अपनी २ सामिग्रीके मिलनेपर दोनोंकी एक साथ ही वृद्धि होजाती है।
ज्ञानकी वृद्धिमें रागकी हानि भी नहीं होती