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अध्याय ]
सुबोधिनी टीका। है, जो देशोद्धारादिक कार्य वर्तमानमें दीख रहे हैं वे यद्यपि निःस्वार्थ-परोपकारार्थ हैं और उस परोपकारका श्रेय भी उन्हें अवश्य मिलेगा। परन्तु ऐसे परोपकारमें स्वोपकार (पारमार्थिक) की गन्ध भी नहीं है। देशोद्धारादि कार्यकारियोंमें स्वधर्म शैथिल्य एवं चारित्र हीनता प्रायः देखी जाती है। यदि उनमें यह बात न हो तो अवश्य ही उनका वह परोपकार पूर्ण स्वोपका. रमें सहायक है।
कथनका संकोचउक्तं दिङ्मात्रतोऽप्यत्र सुस्थितीकरणं गुणः । निर्जरायां गुणश्रेणी प्रसिद्धः सुदृगात्मनः ॥ ८०६ ॥
अर्थ—सुस्थितिकरण गुणका स्वरूप थोड़ासा यहां पर कहा गया है। यह गुण सम्यग्दृष्टिके उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी निर्जराके लिये प्रसिद्ध है।
. वात्सल्य अंगका विवेचनवात्सल्यं नाम दासत्वं सिद्धार्हडिम्बवेश्मसु ।
संघे चतुर्विधे शास्त्रे स्वामिकार्ये सुभृत्यवत् ॥ ८०७॥
अर्थ-सिद्धपरमेष्ठी, अर्हद्विम्ब, जिन मन्दिर, चतुर्विध संघ ( मुनि, आर्यिका, श्रावक • श्राविका) और शास्त्रमें, स्वामिकार्यमें योग्य सेवककी तरह दासत्व भाव रखना ही वात्सल्य है।
अर्थादन्यतमस्योचैरुद्दिष्टेषु स दृष्टिमान् ।
सरलु घोरोपसर्गेषु तत्परः स्यात्तदत्यये ॥ ८०८ ।
अर्थ-अर्थात् ऊपर जो सिद्धपरमेष्ठी आदि पूज्य बताये हैं उनमेंसे किसी भी एक पर घोर उपसर्ग होने पर उसके दूर करनेके लिये सम्यग्दृष्टि पुरुषको सदा तत्पर रहना चाहिये ।
यदा नह्यात्मसामय यावन्मन्त्रासिकोशकम् ।
तावदृष्टुं च श्रोतुं च तद्वाधां सहते न सः॥ ८०९॥
अर्थ-अथवा जब तक अपनी सामर्थ्य है और जब तक मन्त्र, असि तलवारका जोर) और बहुतसा द्रव्य ( खज़ाना ) है तब तक वह सम्यग्दृष्टि पुरुष उन पर आई हुई किसी प्रकारकी बाधाको न तो देख ही सक्ता है और न सुन ही सकता है। भावार्थ-अपने पूज्यतम देवों पर अथवा देवालयों पर अथवा मुनि, आर्यिका, श्रावक श्राविकाओं पर यदि किसी प्रकारकी बाधा आवे तो उस बाधाको जिस प्रकार हो सके उस प्रकार उसे दूर करदेना योग्य है। अपनी सामर्थ्य से, मंत्र शक्तिप्ते, द्रव्य बलसे, आज्ञासे, सैन्यबलसे हर तरहसे तुरन्त बाधाको दूर करना चाहिये। यही सम्यग्दृष्टिकी आन्तरंगिक भक्तिका उद्गार है । मन्त्रशक्ति भी बहुत बड़ी शक्ति है, बड़ें. २ कार्य मन्त्र शक्तिसे सिद्ध हो जाते हैं। जो लोग मन्त्रोंकी सामर्थ्य नहीं जानते हैं वे ही मन्त्रों पर विश्वास नहीं करते हैं, परन्तु सर्पादिकोंके. विषादिका अपहरण