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२९०] .. पञ्चाध्यायी।
[ दूसरा अर्थ-ज्ञानकी निन उपयोगात्मक चेतना कभी २ होती है। वह लब्धिका विनाश करने में समर्थ नहीं है । इसका कारण भी यही है कि उपयोगरूप ज्ञाननेतनाकी सम व्याप्ति नहीं है। भावार्थ--सम्यग्दर्शनका अविनाभावी जो मतिज्ञानावरण कर्म का विशेष क्षयोपशम है उसीको लब्धि कहते हैं, और उस लब्धिके होनेपर आत्माकी तरफ उन्मुख (रुजू ) होकर आत्मानुभवन करना ही उपयोग है । लब्धि और उपयोगमें कार्य कारण भाव है। लब्धिके होनेपर ही उपयोगात्मक ज्ञान होता है, अन्यथा नहीं । परन्तु यह नियम नहीं है कि लब्धिके. होनेपर उपयोग रूप ज्ञान हो ही हो । उपयोगात्मक ज्ञान अनित्य है । लब्धिरूप ज्ञान नित्य है। जिस समय पदार्थके जाननेके लिये आत्मा उद्यत होता है उसी समय उसके उपयोगात्मक ज्ञान होता है । परन्तु लब्धिरूप ज्ञान बना ही रहता है । इसलिये उपयोग और लब्धि दोनोंमें विषमव्याप्ति है । जो व्याप्ति एक तरफसे होती है उसे विषमव्याप्ति कहते हैं। उपयोगके होनेपर लब्धि अवश्य होती है परन्तु लब्धिके होने पर उपयोगात्मक चेतना हो भी और नहीं भी हो, नियम नहीं है । जो व्याप्ति दोनों तरफसे होती है उसे समव्याप्ति कहते हैं जैसे ज्ञान और आत्मा । जहां ज्ञान है वहां आत्मा अपश्य है और जहां आत्मा है वहां ज्ञान अवश्य है । ऐसी उभयथा व्याप्ति लब्धि और उपयोगरूप ज्ञानचेतनामें नहीं है।
____ उसीका सष्टीकरणअस्त्यत्र विषमव्याप्तिावल्लब्ध्युपयोगयोः। ल धिक्षतेरवश्यं स्यादुपयोगक्षतिर्यतः ॥ ८५५ ॥ अभावाचूपयोगस्य क्षतिर्लब्धेश्च वा न वा। * यत्सदावरणस्यामा दृशा व्याप्तिनंचामना ॥ ८५३ ॥ अवश्यं सति सम्यक्त्वे तल्लब्ध्यावरणक्षतिः। न तत्क्षतिरसत्यत्र सिद्धमेतजिनागमात् ।। ८५७ ॥
अर्थ-लब्धि और उपयोगमें विषम व्याप्ति है । क्योंकि लब्धिका नाश होने पर उपयोगका नाश अवश्यंभावी है। परन्तु उपयोगका नाश होनेपर लब्धिका नाश अवश्यंभावी नहीं है । हो या न हो कुछ नियम नहीं है। सम्यग्दर्शनके साथ लब्ध्यावरणकर्मके क्षयोपशमकी व्याप्ति है, उसके साथ उपयोगात्मक ज्ञानकी व्याप्ति नहीं है। व्याप्तिसे तात्पर्य यहां समव्याप्तिका है सम्यग्दर्शनके होनेपर लब्ध्यावरण कर्म ( ज्ञानचेतनाको रोकनेवाला कर्म )का क्षयोपशम भी अवश्य होता है। सम्यग्दर्शनके अभावमें लब्ध्यावरण कर्मका क्षयोपशम भी
* यहां पर आवरण शब्द का अर्थ आवरणका क्षयोपशम लेना चाहिये। नामके एकदेश कहनेसे सम्पूर्ण नामका ग्रहण कहीं २ किया जाता है ।