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अध्याय। सुबोधिनी टीका।
[२१९ छोड़कर भिन्न पदार्थोंमें भी ज्ञान चेतनाकी वृत्ति रह जानेसे उसको विपक्षवृत्तित्त्व आ गया, " ज्ञान चेतना शुद्धात्मानुभवरूप ही होनी है ज्ञान चेतनात्त्व हेतुसे." इस अनुमानमें ज्ञान चेतनात्व हेतुको शंकाकारने विपक्षवृत्ति बतला कर व्यभिचार दिखलाया है।
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उत्तरसत्यं हेतोर्विपक्षत्वे वृत्तित्वाव्यभिचारिता। यतोऽत्रान्यात्मनोऽन्यत्र स्वात्मनि ज्ञानचेतना ॥ ८५१॥
अर्थ-आचार्य कहते हैं कि तुम्हारा कहना ठीक है विपक्षवृत्ति होनेसे हेतुको व्यभिचारीपना अवश्य आता है, किन्तु यहां पर हेतु विपक्ष वृत्ति नहीं है, क्योंकि अन्य पदार्थोसे भिन्न जो शुद्ध निजात्मा है, उसमें ज्ञान चेतनाकी वृत्ति होनेसे संक्रमण भी बन जाता है और ज्ञान चेतनाको विपक्षवृत्तित्व भी नहीं आता है। भावार्थ-कोई पुरुष पहले भिन्न पदार्थोको जान रहा था, फिर उसने अपने ज्ञानको बाह्य पदार्थोसे हटाकर अपने शुद्धात्म विषयमें लगा दिया, शुद्धात्मानुभवके समय उसका वह ज्ञान ' ज्ञान चेतनास्वरूप है तथा वह बाह्य पदार्थोसे हटकर शुद्धात्मामें लगनेके कारण संक्रमणात्मक भी है, और उस ज्ञानचेतनारूप ज्ञानकी बाह्य पदाकि विषयमें वृत्ति भी नहीं है इसलिये व्यभिचार दोष नहीं है।
किञ्च सर्वस्य सदृष्टेर्नित्यं स्याज्ज्ञानचेतना ।
अव्युच्छिन्नप्रवाहेण यद्वाऽखण्डेकधारया ॥ ८५२ ॥
अर्थ-सम्पूर्ण सम्यग्दृष्टियोंके सदा ज्ञानचेबना रहती है । वह निरन्तर प्रवाह रूपसे रहती है, अथवा अखण्ड एकधारा रूपसे सदा रहनी है।
इसमें कारणहेतुस्तत्रास्ति सधीची सम्यक्त्वेनान्वयादिह । ज्ञानसश्चेतनालब्धिनित्या स्वावरणव्ययात् ॥ ८५३ ॥
अर्थ-निरन्तर ज्ञानचेतनाके रहनेमें भी सहकारी कारण सम्यग्दर्शनके साथ अन्वयरूपसे रहनेवाली ज्ञानचेतनालब्धि है वह आने आवरणके दूर होनेसे सम्यग्दर्शनके साथ सदा रहती है। भावार्थ-आत्मामें सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होनेके साथ ही मतिज्ञानावरण कर्मका विशेष क्षयोपशन होता है उसी क्षयोपशमका नाम ज्ञान चेतना लब्धि है । यह लब्धि सम्यग्दर्शनके साथ अविनाभाव रूपसे सदा रहती है, और यही लब्धि उपयोगात्मक ज्ञान चेतनामें कारण है।
उपयोगात्मक शानचेतना सदा नहीं होती हैकादाचित्कास्ति ज्ञानस्य चेतना स्वोपयोगिनी।। नालं लब्धेर्विनाशाय समव्याप्तेरसंभवात् ॥ ८९४ ॥