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अध्याय ]
'सुबोधिनी टीका ।
यह क्रमवीपन पहलेकासा नहीं हैनात्र हेतुः परं साध्ये क्रमत्वेऽर्थान्तराकृतिः। किन्तु तत्रैव चैकार्थे पुनर्वृत्तिरपि क्रमात् ॥ ८४५॥
अर्थ-इस ध्यानरूप ज्ञानमें जो क्रमवर्तीपना है उसमें अर्थसे अर्थान्तर होना हेतु नहीं है किन्तु एक पदार्थमें ही क्रमसे पुनः पुनर्वृत्ति होती रहती है।
भावार्थ-जिस प्रकार इन्द्रियजन्य ज्ञानमें अर्थसे अर्थान्तररूप क्रमवृत्ति बतलाई गई है उसप्रकार ध्यानरूप ज्ञान में क्रमवृत्ति नहीं है किन्तु वहां एक ही पदार्थमें पुनः पुर्नवृत्ति है।
अतिव्याप्ति दोष नहीं हैनोह्यं तत्राप्यति व्याप्तिः क्षायिकात्यक्षसंविदि ।
स्यात्परीणामवत्वेपि पुनर्वृत्तेरसंभवात् ॥ ८४६ ॥
अर्थ-कदाचित् यह कहा जाय कि इस ऊपर कहे हुए ध्यानरूप ज्ञानकी अतीन्द्रिय क्षायिक ज्ञानमें अतिव्याप्ति * आती है क्योंकि क्षायिक ज्ञान भी अर्थसे अर्थान्तरका ग्रहण नहीं करता है और ध्यानरूप ज्ञान भी अर्थसे अर्थान्तरका ग्रहण नहीं करता है इस लिये ध्यान रूप ज्ञानका क्षायिक ज्ञानमें लक्षण चला जाता है ? ऐसी आशंका ठीक नहीं है, क्योंकि क्षायिक ज्ञान यद्यपि परिणमनशील है तथापि उसमें पुनर्वृत्ति (वार वार ध्येय पदार्थमें उपयोग करना का होना असंभव है भावार्थ-यद्यपि सामान्य दृष्टिसे ध्यान और क्षायिकज्ञान दोनों ही क्रम रहित हैं, अर्थसे अर्थान्तरका ग्रहण दोनोंमें ही नहीं है । तथापि दोनोंमें वड़ा अन्तर है, ध्यान इन्द्रियनन्य ज्ञान है वह यद्यपि एक पदार्थमें ही ( एक कालमें ) होता है तथापि उसीमें फिर फिर उपयोग लगाना पड़ता है । क्षायिक ज्ञान ऐसा नहीं है वह अतिन्द्रिय है इसलिये उसमें उपयोगकी पुनर्वृत्ति नहीं है वह सदा युगपत् अखिल पदार्थोके जाननेमें उपयुक्त रहता है, केवल पदार्थों में प्रति समय परिवर्तन · होनेके कारण क्षायिक ज्ञानमें भी परिणमन होता रहता है । परन्तु क्षायिक ज्ञानमें क्रमवर्तीपन और पुनर्वृत्तिपन नहीं है इस. लिये ध्यानका लक्षण इसमें सर्वथा नहीं जाता है।।
छद्मस्थोंका ज्ञान संक्रमणात्मक हैयावच्छद्मस्थजीवानामस्ति ज्ञानचतुष्टयम् । नियतक्रमवर्तित्वात् सर्व संक्रमणात्मकम् ॥ ८४७ ॥
* जो लक्षण अपने लक्ष्यमें भी रहे और अलक्ष्यमें भी रहे उसे अतिव्याप्ति लक्षणाभास कहते हैं ।
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