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२१६] . पश्चाध्यायी।
दूसरा भी इन्द्रिनयन्य बोध है। सराग सम्यग्दृष्टिके इन्द्रियजन्य ज्ञान होता है और इन्द्रियोंसे होनेवाला ज्ञान जिस पदार्थको जाननेकी चेष्टा करता है उसीको जानता है ।।
इन्द्रियज्ञान क्रमवती हैइदं तु क्रमवर्त्यस्ति न स्यादक्रमवर्ति यत् । ऐका व्यक्तिं परित्यज्य पुनव्यक्तिं समाश्रयेत् ॥ ८४१॥
अर्थ-इन्द्रियजन्य ज्ञान नियमसे क्रमवर्ती होता है वह अक्रमवर्ती-सभी पदार्थोंको एक साथ जाननेवाला कभी नहीं होता। इन्द्रियजन्य ज्ञान एक पदार्थको छोड़कर दूसरे पदार्थको जाननेकी चेष्टा करता है।
इन्द्रियजबोध और क्रमवर्तित्वकी समव्याप्ति है
इदं त्वावश्यकी वृत्तिः समव्याप्तेरिवाया। . इयं तत्रैव नान्यत्र तत्रैवेयं नचेतरा ॥ ८४२॥
अर्थ-समव्याप्तिकी तरह इन्द्रियजन्यबोध और संक्रान्तिकी आवश्यक व्यवस्था है । अर्थात् इन्द्रिनयन्य बोध और क्रमवर्तीपना दोनोंकी समव्याप्तिके समान ही व्यवस्था है । जहां इन्द्रियजन्य बोध है वहीं क्रमवर्तीपन है, अन्यत्र नहीं है। जहां इन्द्रियजन्य बोध है वहां क्रमवर्तीपन ही है, वहां और व्यवस्था नहीं है, अर्थात् क्षायिक ज्ञान और संक्रान्तिकी प्राप्ति नहीं है।
___ ध्यानका स्वरूपयत्पुनर्ज्ञानमेकत्र नैरन्तर्येण कुत्रचित् । अस्ति तड्यानमत्रापि क्रमो नाप्यक्रमोर्थतः ॥ ८४३ ॥ एकरूपमिवाभाति ज्ञानं ध्यानकतानतः।
तत्स्यात्पुनः पुनर्वृत्तिरूपं स्यात् क्रमवत्ति च ॥ ८४४ ॥
अर्थ-जो ज्ञान किसी एक पदार्थ में निरन्तर रहता है उसीको ध्यान कहते हैं। इस ध्यानरूप ज्ञानमें भी वास्तवमें न तो क्रम ही है और न अक्रम ही है । ध्यानमें एक वृत्ति होनेसे वह ज्ञान एक सरीखा ही विदित होता है । वह वार वार उसी ध्येयकी तरफ लगता है इस लिये वह क्रमवर्ती भी है । भावार्थ-यद्यपि यहां ध्यानका कोई प्रकरण नहीं है परन्तु प्रसङ्गवश उसका स्वरूप कहा गया है। प्रसंगका कारण भी यह है कि यहां पर इन्द्रियनन्य ज्ञानका विचार है कि वह क्रमवर्ती है, क्षायिकज्ञान क्रमवर्ती नहीं है। इन्द्रिय जन्य ज्ञान भी कहीं २ ध्यानावस्थामें एकाग्रवृत्ति होता है, ध्यानमें ही तल्लीनता होनेसे वह ज्ञान स्थिर एकरूप ही प्रतीत होता है इस लिये ऐसे स्थलमें ( ध्यानस्थ ज्ञानमें ) क्रमवर्तित्वका विचार नहीं भी होता है । परन्तु ध्यानस्थ ज्ञान भी फिर फिर उसी पदार्य में (ध्येयमें) लगता है इस लिये उसे कथञ्चित् क्रमवर्ती भी कह दिया जाता है वास्तवमें वहां क्रम और अक्रमका विचार नहीं है।