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२१४] पञ्चाध्यायी।
[दूसरा सम्यग्दृष्टिके ज्ञानचेतनाका अभाव बतालाया है वह वीतराग सम्यग्दृष्टिके ही ज्ञानचेतना बतलाता है। आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना ठीक नहीं है सराग सम्यग्दृष्टिके भी ज्ञानचेतना होती है । इस लिये सराग सम्ग्यदृष्टिसे ज्ञानचेतनाको पृथक् करना ऐसा ही है जैसे कि अग्निसे उसके गुणको दूर करना ।
अब सम्यग्दृष्टिके सराग और सविकल्पक विशेषणोंका आशय प्रकट किया जाता है जिससे कि सराग-सविकलक सम्यग्दृष्टिके ज्ञान चेतना होनेमें किसी प्रकारका सन्देह न रहे
विकल्पो योगसंक्रान्तिरर्थाऽज्ज्ञानस्य पर्ययः ।
ज्ञेयाकारः स ज्ञेयार्थात ज्ञेयार्थान्तरसङ्गतः ॥ ८३५॥ - अर्थ-उपयोगके बदलनेको विकल्प कहते हैं। वह विकल्प ज्ञानकी पर्याय है अर्थात् पदार्थाकार ज्ञान ही उस ज्ञेयरूप पदार्थसे हटकर दूसरे पदार्थके आकारको धारण करने लगता है । भावार्थ-आत्माका ज्ञानोपयोग एक पदार्थसे हटकर दूसरी तरफ लगता है इसीका नाम उपयोग संक्रान्ति है । और इसी उपयोगका नाम विकल्प है।
__ वह विकल्प क्षयोपशमरूप हैक्षायोपशमिकं तत्स्यादोंदक्षार्थसम्भवम् ।
क्षायिकात्यक्षज्ञानस्य संक्रान्तेरप्यसंभवात् ॥ ८३६ ॥
अर्थ-वह उपयोग संक्रान्ति स्वरूप विकल्प क्षयोपशमात्मक है । अर्थात् इन्द्रिय और पदार्थके सम्बन्धसे होनेवाला ज्ञान है । क्योंकि अतीन्द्रिय-क्षायिक ज्ञानमें संक्रान्तिका होना ही असंभव है । भावार्थ-जब तक ज्ञानमें अल्पज्ञता है तब तक वह सब पदार्थोंको युगपत नहीं ग्रहण कर सक्ता है किन्तु क्रम क्रमसे कभी किसी पदार्थको और कभी किसी पदार्थको जानता है । यह अवस्था इन्द्रिय जन्य ज्ञानमें ही होती है । जो ज्ञान क्षायिक है-अतीन्द्रिय है उसमें सम्पूर्ण पदार्थ एक साथ ही प्रतिविम्बित होते हैं इसलिये उस ज्ञानमें उपयोगका परिवर्तन नहीं होता है । परन्तु बह ज्ञान भी सविकल्पक है ।
___ कदाचित् कोई कहे कि वह ज्ञान (क्षायिक ) कैसे हो सक्ता है क्योंकि विकल्प नाम उपयोगकी संक्रान्तिका है और क्षायिक ज्ञानमें संक्रान्ति होती नहीं है, फिर क्षायिक ज्ञान सविकल्पक किस प्रकार हो मक्ता है ? इसका समाधान
अस्ति क्षायिकज्ञानस्य विकल्पत्वं स्वलक्षणात् । नार्थादर्थान्तराकारयोगसंक्रान्तिलक्षणात् ॥ ८३७ ॥
अर्थ- क्षायिक ज्ञानमें विकल्पपना अपने लक्षणसे आता है न कि अर्थसे अर्थान्तराकारमें परिणत होनेवाले उपयोगके संक्रमण रूप लक्षणसे ।