________________
अध्याय । ]
बोधिनी टीका ।
व्यावहारिकसदृष्टेः सविकल्पस्य रागिणः । प्रतीतिमात्रमेवास्ति कुतः स्यात् ज्ञानचेतना ॥ ८३० ॥ अर्थ — ऐसी योगरूढ अथवा लोकरूढि है कि वह सम्यग्दर्शन दो प्रकार है एक निश्चय सम्यक्त्व दूसरा व्यवहार सम्यक्त्व । व्यवहार सम्यक्त्व सराग और सविकल्प है, और निश्चय सम्यक्त्व वीतराग तथा निर्विकल्पक है । किन्हीं मोहशाली पुरुषोंकी ऐसी वासना है, उनके मत में वीतराग सम्यग्दृष्टि ही ज्ञानचेतना होती है । उन लोगोंने सम्यक्त्वके दो भेद करके उसके स्वामी भी दो भेद किये हैं। उनका कहना है कि एक सराग सम्यक्त्व होता है और एक वीतराग सम्यक्त्व होता है । उन दोनोंमें जो वीतराग - निर्विकल्पक सम्यग्दृष्टि है उसीके ज्ञान चेतना होती है, जो सराग-सविकल्पक व्यावहारिक सम्यग्दृष्टि है उसके ज्ञानचेतना कभी नहीं होती क्योंकि उसके प्रतीतिमात्र है इस लिये ज्ञान चेतना उसके कहांसे हो सकती है।
उत्तर---
इति प्रज्ञापराधेन ये वदन्ति दुराशयाः ।
तेषां यावच्छुताभ्यासः कायक्लेशाय केवलम् ॥ ८३१ ॥
अर्थ - - इस प्रकार बुद्धिके दोषसे जो दुष्ट आशयवाले ऐसा कहते हैं उनका जितना भी शास्त्राभ्यास है वह केवल शरीरको कष्ट पहुंचाने के लिये है ।
[२१३
अत्रोच्यते समाधानं सामवेदेन सूरिभिः ।
उच्चैरुत्फणिते दुग्धे योज्यं जलमनाविलम् ॥ ८३२ ॥
अर्थ--यहां पर आचार्य शान्ति पूर्वक समाधान करते हैं क्योंकि दूधका उफान आने पर स्वच्छ जल उसमें डालना ही ठीक है ।
सतृणाभ्यवहारित्वं करीव कुरुते कुदृक् ।
तज्जहीहि जहीहि त्वं कुरु प्राज्ञ विवेकिताम् ॥ ८३३ ॥
अर्थ -- जिस प्रकार हस्ती तृण सहित खाजाता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि अविवेकपूर्वक बोलता है । आचार्य कहते हैं कि हे प्राज्ञ ! उस अविवेकिता को छोड़ दो और विवेक से काम लो ।
वन्हेरौष्ण्यमिवात्मज्ञ पृथक त्वमर्हसि ।
मा विभ्रमस्व दृष्ट्वापि चक्षुषाऽचाक्षुषाशया ॥ ८३४॥ अर्थ--आचार्य कहते हैं कि हे आत्मज्ञ ! तुम वन्हिसे उष्णताकी तरह 'सम्यग्दृष्टि से ज्ञान चेतना' को अलग करना चाहते हो । परंतु चक्षुसे किसी पदार्थको देखकर भी अचाक्षुष प्रत्यक्ष. की आशा से उस पदार्थमें विभ्रम मत करो । भावार्थ - ऊपर शंकाकारने सविकल्पक सरागी
1