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अध्याय।
सुबोधिनी टीका।
अर्थ-अथवा सामग्रीकी योग्यतामें कभी दर्शनसे नहीं भी गिरता है तो भावोंकी शुद्धिको नीचे नीचेके अंशोंसे ऊपर ऊपरको बढ़ाता है।
अथवाकचिद्वहिः शुभाचारं स्वीकृतं चापि मुश्चति ।
न मुञ्चति कदाचिदै मुक्त्वा वा पुनराश्रयेत् ॥ ७९९ ॥
अर्थ-कभी स्वीकृत किये हुए भी बाह्य-शुभाचारको छोड़ देता है। कभी नहीं भी छोड़ता है । अथवा छोड़कर पुनः ग्रहण करने लगता है ।
अथवायदा वहिः क्रियाचारे यथावस्थं स्थितेपि च ।
कदाचिद्दीप्यमानान्तर्भावैर्भूत्वा च वर्तते ॥ ८०० ॥ • अर्थ-अथवा बाह्य क्रियाचारमें ठीक २ स्थित रहनेपर कभी २ अन्तरंग भावोंसे दैदीप्यमान होने लगता है।
नासंभवमिदं यस्माच्चारित्रावरणोदयः ।
अस्ति तरतमस्वांशैर्गच्छन्निम्नोन्नतामिह ॥ ८०१॥
अर्थ-कभी अन्तरंगके भाव बढ़ने लगते हैं कभी घटने लगते हैं यह बात असंभव नहीं है । क्योंकि चारित्र मोहनीय कर्मका उदय अपने अंशोंसे कभी बढ़ने लगता है और कभी घटने लगता है । भावार्थ-चारित्र मोहनीय जिस रूपसे कम बढ़ होता है उसी रूपसे भावोंमें भी हीनाधिकता होती है ।
अत्राभिप्रेतमेवैतत्स्वस्थितीकरणं स्वतः।। न्यायात्कुतश्चिदत्रास्ति हेतुस्तत्रानवस्थितिः॥ ८०२॥
अर्थ-यहां पर इतना ही अभिप्राय है कि स्वस्थितीकरण स्वयं होता है और उसमें आत्माकी स्थिरताका न होना ही कारण है।
दूसरोंका स्थितिकरणसुस्थितीकरणं नाम परेषां सदनुग्रहात् ।
भ्रष्टानां स्वपदात्तत्र स्थापनं तत्पदे पुनः ॥ ८०३ ॥
अर्थ-दूसरों पर ४ सत् अनुग्रह करना ही पर-स्थितीकरण है । वह अनुग्रह यही है कि जो अपने पदसे भ्रष्ट हो चुके हैं उन्हें उसी पदमें फिर स्थापन कर देना।
- सत् अनुग्रहसे; इतना ही तात्पर्य है कि विना किसी प्रकारकी इच्छा रहते हुए धार्मिक बुद्धिमे परोपकार करना । जो अनुग्रह लोभवश अथवा अन्य प्रतिष्ठा आदिकी चाहना वश किया जाता है, वह अनुग्रह अवश्य है परन्तु उसको सत् अनुग्रह नहीं कह सक्ते । प्रशंसनीय अनुग्रह निस्पृह वृत्तियोंका ही कहा जा सक्ता है ।