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पञ्चाध्यायी।
[ दूसरा
शुद्ध चारित्र ही निर्जराका कारण हैचारित्रं निर्जराहेतुायादप्यस्त्यवाधितम् ।
सर्वस्वार्थक्रियामर्हन् सार्थनामास्ति दीपवत् ॥ ७५९ ॥
अर्थ-चारित्र निर्जराका कारण है यह वात न्यायसे अवाधित सिद्ध है । वह चारित्र ही स्वार्थ क्रिया करनेमें समर्थ है। जिस प्रकार दीपक प्रकाशन क्रियासे सार्थनामा ( यथार्थ नामवाला ) है उसी प्रकार चारित्र भी कर्म नाश क्रियासे सार्थनामा है।
शुभोपयोग यथार्थ चारित्र नहीं हैरूद्वैः शुभोपयोगोपि ख्यातश्चारित्रसज्ञया। स्वार्थक्रियामकुर्वाणः सार्थनामा न निश्चयात् ॥ ७६० ॥ किन्तु बन्धस्य हेतुः स्थादर्थात्तत्प्रत्यनीकवत् । नासौ वरं वरं यः स नापकारोपकारकृत् ॥ ७६१ ॥
अर्थ-रूढिसे शुभोपयोग भी चारित्र कहा जाता है परन्तु शुभोपयोग चारित्र स्वार्थ क्रिया (कर्मोकी निर्जरा)के करनेमें समर्थ नहीं है इस लिये निश्चयसे वह यथार्थ चारित्र नहीं है। किन्तु कर्मबन्धका कारण है इस लिये शत्रुके समान है। यह चारित्र श्रेष्ठ नहीं कहा जा सक्ता किन्तु शुद्धोपयोगरूप चारित्र श्रेष्ठ है । यह न तो आत्माका उपकार ही करनेमें समर्थ है और न अपकार ही करने में समर्थ है। भावार्थ-शुभोपयोगसे शुभ कर्मोका बन्ध होता है। यद्यपि शुभ कर्मोका बन्ध विपाक कालमें सांसारिक सुखका देनेवाला है तथापि उसे वास्तविक दृष्टि से मुखका विघातक ही समझना चाहिये, क्योंकि कर्मबन्ध जितना भी है सभी आत्माको दुःख देनेवाला है। आत्माका वास्तविक कल्याण उसी चारित्रसे होता है जो आत्मासे कर्मोको दूर करनेमें समर्थ है। ऐसा चारित्र शुद्धोपयोगरूप ही होता है। शुभोपयोग कर्मबन्धका कारण है इसी लिये उसे यथार्थ चारित्र नहीं कहा गया है किन्तु आत्माका अहितकर ही कहा गया है। निश्चय दृष्टिसे यह कथन है ! व्यवहार दृष्टिसे शुभोपयोग अच्छा ही है और उपकारी भी है।
___ शुभोपयोग विरुद्ध कार्यकारी हैविरुद्धकार्यकारित्वं नास्यासिद्ध विचारसात् ।
बन्धस्यैकान्ततो हेतोः शुद्धादन्यत्रसंभवात् ॥ ७६२ ॥
अर्थ-शुभोपयोग रूप चारित्र विरुद्ध कार्यकारी है यह बात असिद्ध नही है। क्योंकि शुद्धके सिवा सर्वत्र एकान्त रीतिसे बन्ध होना संभव ही है।