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अध्याय ।
सुबोधिनीटीका ।
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अर्थ -- अमूढदृष्टि सम्यग्दर्शनका गुण है । यह गुण किसी प्रकार दोषोत्पादक नहीं है किन्तु गुणोत्पादक है । क्योंकि सम्यग्दृष्टि नियमसे अमूढदृष्टि अंगका पालन करता है । मिथ्यादृष्टि ऐसा नहीं करता वह उल्टा ही करता है । भावार्थ - सम्यग्दृष्टि के लिये अमूढ़दृष्टि अंग अवश्य पालनीय है। यदि सम्यग्दृष्टिकी बुद्धि देवगुरु धर्मके सिवा कुगुरु, कुधर्म, कुदेवकी प्रशंसा अथवा उनकी किञ्चिन्मान्यताकी तरफ है तो उसे मिथ्यादृष्टि ही समझना चाहिये । अथवा देव, गुरु, धर्ममें उसकी पूर्ण श्रद्धा नहीं है तो भी उसे मिथ्यादृष्टि ही समझना चाहिये । इसलिये अमूढदृष्टि सम्यग्दृष्टिका प्रधान गुण समझना चाहिये । शब्दान्तर में यों कहना चाहिये कि सम्यग्दृष्टि अमूढदृष्टि नियमसे होता ही है (यदि वह मूढदृष्टि है तो सम्यग्दृष्टि नहीं किन्तु मिथ्यादृष्टि है । क्योंकि सम्यग्दृष्टि कुदेव, कुगुरु, कुधर्म और मिथ्या शास्त्रोंकी न तो विनय करता हैन उन्हें प्रणाम ही करता है । विना मिथ्यात्वके उसकी कुदेवादिककी ओर बुद्धि अनुगामी किसी प्रकार नहीं हो सक्ती है। इसके सिवा जो लोग सच्चे देव, शास्त्र, गुरुकी यथार्थ विनय नहीं करते हैं, जिनको उनमें पूर्ण श्रद्धा नहीं है उन्हें भी मिथ्यादृष्टि ही समझना चाहिये । * विना मिथ्यात्वकर्मके उदय हुए ऐसी कुमति नहीं हो सक्ती है ।
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यद्यपि सम्यग्दर्शन गुण अतिसूक्ष्म है उसका विवेचन नहीं किया जासक्ता है । जिस पुरुषकी आत्मामें वह गुण प्रकट होता है उसीको शुद्धात्मानुभवनका अपूर्व स्वाद आता है । वह उस आत्मिक अपूर्व स्वादका बाह्यमें उसी प्रकार विवेचन नहीं कर सक्ता है जिस · प्रकार कि घीका स्वाद लेनेवालेसे उसका स्वाद पूछने पर वह उसका स्वाद ठीक २ प्रकट नहीं कर सक्ता । जिस प्रकार घीका स्वाद चखनेसे ही उसकी यथार्थ प्रतीति होती है उसी प्रकार उस अलौकिक दिव्य सम्यक्त्वगुणकी प्रकटतामें होनेवाले आत्मिक रसका वह स्वयं पान करता है दूसरेसे नहीं कह सकता । तथापि व्यवहार सम्यक्त्व जो बतलाया गया है कि सत्यार्थ देव, गुरु, शास्त्रमें पूर्ण श्रद्धा रखना, उस बाह्य सम्यक्त्वमें भी जिनकी बुद्धि विपरीत है उनके मिथ्यात्व कर्मका तीव्र उदय समझना चाहिये । व्यवहार सम्यक्त्वीकी भी सच्चे देव, "गुरु, शास्त्र में अटल भक्ति रहती है। उनमें उसकी बुद्धि किञ्चिन्मात्र भी शंकित नहीं होती है । यह बात भी नहीं है कि किसी पदार्थमें सम्यग्दृष्टिको शंका ही नहीं उत्पन्न होती है, सम्यग्दृष्टि सर्वज्ञ नहीं है और जैसे छद्मस्थ हैं तैसे वह भी छद्मस्थ है । छद्मस्थतामें अनेक शंका
x भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिङ्गिनाम् ।
प्रणामं विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः ||
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अर्थात् भयसे, आशासे, प्रेमसे, लोभसे किसी तरह भी सम्यग्दृष्टि कुदेवादिकको प्रणाम अथवा उनकी विन्म नहीं कर सक्ता है । रत्नकरण्ड श्रावकाचार |
* आजकल जो प्रथमानुयोग शास्त्रोंको कहानियां 'अनावश्यक समझते हैं उनके मिथ्यात्वकर्मका उदय अवश्य है।
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उ० २६
कहते हैं और जो जिनदर्शनको