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पञ्चाध्यायी।
[दूसरी
अखण्डित हैं। भावार्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों ही उत्तरोत्तर चिन्तनीय हैं तीनोंमेंसे पहले २ के होनेपर आगे आगेके भननीय हैं, परन्तु उत्तर उत्तर के होनेपर पहले २ का होना अवश्यंभावी है' अर्थात् सम्यग्दर्शन के होनेपर सम्यग्ज्ञान भजनीय है और सम्यग्ज्ञानके होने पर सम्यक्चारित्र भजनीय है । यद्यपि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों साथ साथ ही होते हैं। क्योंकि जिस समय आत्मामें दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम अथवा क्षय, क्षयोपशम होनेपर सम्यग्दर्शन प्रकट होता है उसी समय मति अज्ञान, श्रुत अज्ञानकी निवृत्ति पूर्वक आत्मामें सुमतिज्ञान सुश्रुतज्ञान प्रकट होजाते हैं। सम्यग्दर्शन यद्यपि ज्ञानको उत्पन्न नहीं करता है क्योंकि ज्ञानको उत्पन्न (प्रकट) करनेवाला तो ज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम हैं। परन्तु ज्ञानमें सम्यक्पना सम्यग्दर्शनके होनेपर ही आता है इसलिये दोनों ही अविनाभावी है। अविनाभावी होनेपर भी ऊपर जो यह कहा गया है कि सम्यग्दर्शनके होनेपर सम्यग्ज्ञान भननीय है, उसका आशय यह है कि सम्यग्दर्शनके होनेपर उत्तरोत्तर सम्यग्ज्ञानका क्षयोपशम भननीय है । इसी लिये सम्यग्दर्शनकी पूर्ति सातवें गुणस्थानमें निय-से होनाती है, परन्तु ज्ञानकी पूर्ति बारहवें गुणस्थानके अन्तमें होती है । इससे सिद्ध होता है कि सम्यग्दर्शनके होने पर ज्ञान भजनीय है । इसी प्रकार सम्यग्ज्ञानके होने पर सम्यक् चारित्र भननीय है । सम्यग्ज्ञानके होनेपर यह नियम नहीं है कि चारित्र हो ही हो । चौथे गुणस्थानमें सम्यग्ज्ञान तो होजाता है । परन्तु सम्यक्चारित्र वहां नहीं है। वह पाँच गुणस्थानसे शुरू होता है। हां इतना अवश्य है कि जिस प्रकार सम्यग्दर्शनके साथ सम्यग्ज्ञान अविनाभावी है उसी प्रकार सम्यग्दर्शनके साथ स्वरूपाचरण चारित्र भी अविनाभावी है। चौथे गुणस्थानमें सम्यग्दर्शनके साथ ही स्वरूपाचरण चारित्र भी आत्मामें प्रकट हो जाता है। इसका कारण भी यही है कि सम्यग्दर्शनके घात करनेवाली सात प्रकृतियां हैं-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति । इन सातोंमें अन्तके तीन भेद तो दर्शनमोहनीयके हैं और आदिके चार भेद ( अनन्तानुबन्धी ) चारित्र मोहनीयके हैं। अनन्तानुबन्धी कषाय यद्यपि चारित्रमोहनीयका भेद है तथापि उसमें दो प्रकारकी शक्ति है वह सम्यग्दर्शनका भी घात करती है और सम्यक्चारित्रका भी घात करती है। अनन्तानुबन्धीका दूसरे गुणस्थान तक उदय रहता है, इसीलिये चौथे गुणस्थानमें निराबाध सम्यग्दर्शन और स्वरूपाचरण चारित्र प्रकट रहता है, परन्तु जब * प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें
* आदिम सम्मत्तद्धा समयादो छावलित्ति वा ससे । अण अण्णदरुदयादो णासियसम्मोत्ति सासणक्खो सो ॥ सम्मत्तरयणपव्वयासिहरादोमिच्छभूमिसमभिमुहो। णासियसम्मत्तो सो सासणणामो मुणेयव्वो ॥ अर्थात्-जिस समय अनन्तानुबन्धी कषायके उदयसे जीव सम्यक्त्वसे गिरता है उस समय दूसरे गुस्थान में आता है, दूसरा गुणस्थान भी यद्यपि जीवकी वैभाविक अवस्था तथापि वैमाविक अवस्था मिथ्यात्वके सन्मुखापन्न अवस्था है। (गोमट्टसार)