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अध्याय।। सुबोधिनी टीका ।
[१९५ ऐसी तर्कणा मत करोनोचं प्रज्ञापराधत्वान्निर्जरा हेतुरंशतः।
अस्ति नाबंधहेतुर्वा शुभो नाप्यशुभावहः ॥७६३ ॥
अर्थ-बुद्धिके दोषसे ऐसी भी तर्कणा नहीं करना चाहिये कि शभोपयोग-चारित्र अंश मात्र निर्जराका भी कारण है । शुभोपयोग और अशुभोपयोग दोनों निराके कारण तो है ही नहीं, किन्तु संवरके भी नहीं हैं । भावार्थ-शुभोपयोग शुभ बन्धका कारण है। दोनों कर्म बन्धके ही कारण हैं, और कर्म बन्ध आत्माका शत्रु है।
यथार्थ चारित्र। कर्मादानक्रियाराधः स्वरूपाचरणं च यत् । धर्मः शुद्धोपयोगः स्थात् सैष चारित्रसंज्ञकः॥ ७६४ ॥
अर्थ-कर्मके ग्रहण करनेकी क्रियाका रुक जाना ही स्वरूपाचरण चारित्र है। वही धर्म है, वही शुद्धोपयोग है, और वही यथार्थ चारित्र है।
___ ग्रन्थान्तर-- *चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोति णिहिट्ठो।
मोहक्कोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो ॥ ७६५ ॥
अर्थ-निश्चयसे चारित्र ही धर्म है और धर्म वही है जो उपशमरूप है । तथा मोह क्रोधसे रहित आत्माका परिणाम ही धर्म है । भावार्थ-उपशमसे संवरका ग्रहण करना चाहिये, और मोहक्रोध रहित आत्माके परिणामसे निर्जराका ग्रहण करना चाहिये, अर्थात् संवर और निर्जरारूप धर्म ही चारित्र है।
शङ्काकार।
ननु सहर्शनज्ञानचारित्रैमोक्षपद्धतिः।
समस्तैरेव न व्यस्तैस्तलिंक चारित्रमात्रया ॥ ७६६ ॥
अर्थ-शङ्काकारका कहना है कि सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और चारित्र तीनोंको मिलकर ही मोक्षमार्ग कहलाता है । फिर केवल चारित्रके कहनेसे क्या प्रयोजन है ?
उत्तरसत्यं सदर्शनं ज्ञानं चारित्रान्तर्गतं मिथः । त्रयाणामविनाभावादिदं त्रयमखण्डितम् ॥ ७६७ ॥
अर्थ-आचार्य कहते हैं कि सामान्य दृष्टि से शंका ठीक है कि सामान्य दृष्टिसे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों ही चारित्रमें गर्भित हैं। परंतु तीनोंका अविनाभाव होनेसे तीनों ही