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पश्चाध्यायी।
( दूसरी
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समय हमारे अतिशय पुण्य बन्धका कारण है। श्रावकके लिये जिनेन्द्र दर्शन, जिनपूजन और जिन चिन्तवम इनसे बढ़कर विशेष पुण्योत्पादक और कोई वस्तु नहीं है और यह सामग्री जिन मन्दिरमें ही मिल सक्ती है । इसलिये जिन मन्दिरोंका बनवाना परम आवश्यक है, वर्तमान समयमें कुछ लोग ऐसा कहने लगे हैं कि “फल भावानुवार होता है इसलिये देवदर्शन करना आवश्यक नहीं है, घर ही परोक्ष नमस्कार करनेसे पुण्यबन्ध हो सक्ता है, और भाव न हों तो मंदिर जाना भी कुछ कार्यकारी नहीं है" ऐसा कहना उन्हीं पुरुषोंका समझना चाहिये जो जैन शास्त्रोंपर श्रद्धान नहीं रखते हैं, और न जैन मतमें बताई हुई क्रियाओंको पालते हैं इतना ही नहीं किंतु क्रियाओंको रूढि कहकर अपने तीव्र मिथ्यात्वका परिचय देते हैं । जो जिन दर्शनको प्रतिदिन आवश्यक नहीं समझते हैं उन्हें जैन कहना भूल है, “ भावसे ही पुण्यबन्ध होता है " यह उनका छल मात्र है, यदि वास्तवमें ही वे भावोंको ऐसा बनातेःतो जिन दर्शन और जिन मंदिरकी अनावश्यकता नहीं बतलाते । विना बाह्य अबलम्बनके अन्तरंगका सुधार कभी नहीं हो सक्ता है । जिन मुनियोंने आत्माको ही ध्येय बना रखा है उन्होंने भी अनेक स्तोत्र स्रोतोंसे मिन भक्तिकी गंगा वहा दी है। फिर विचारे आत्मध्येयसे कोशों दूर श्रावकोंकी तो बात ही क्या है । श्रावकोंके नित्य कर्तव्योंमें सबसे पहला कर्तव्य देवपूजन है। इसलिये जिन मंदिर बनवाकर अनेक भव्य जीवोंका उपकार करना श्रावकका प्रथम कर्तव्य है । * : कोई २ ऐसी शंका करते हैं कि जिनमंदिर बनवानेमें जल मिट्टी ईट पत्थर लकड़ी आदि पदार्थोके इकट्ठा करनेमें पापबन्ध ही होता है ? इसका उत्तर ग्रन्थकारने चौथे चरणमें स्वयं देदिया है, उन्होंने कह दिया है कि पापका लेश अवश्य है परन्तु असीम पुण्य वन्धके सामने वह कुछ नहींके बराबर है क्योंकि " तत्पापमपि न पापं यत्र महान् धर्मानुबन्धः " अर्थात् वह पाप भी पाप नहीं है कि जिसमें बड़ा भारी धर्मानुबन्ध हो इसी लिये आचार्यने पापलेशके होनेसे मंदिर बनवानेकी विधिको दूषित नहीं बताया है। मंदिर बनवानेमें पापका तो लेश मात्र है परन्तु पुण्यबन्ध बहुत होता है इसलिये उपर्युक्त शंका निर्मूल है।x
___* निरालम्बनधर्मस्य स्थितियस्मात्ततः सताम्, मुक्तिप्रासादसोपानमाप्तैरुक्तो जिनालयः ।। अर्थ-जिनमंदिरों में आधार रहित धर्मकी स्थिति बनी हुई है। इस लिये वे जिनमन्दिर सज्जन पुरुषों को मोक्षरूपी महलपर चढ़ने के लिये सीढीके समान हैं ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है ।
(सागारधर्मामृत) x यद्यप्यारम्भतो हिसा हिंसायाः पापसंभवः ।
तत्राप्यत्रकृतारम्भो महत्पुण्यं समश्नुते ॥ अर्थ-द्यपि आरंभ करने से हिंसा होती है और हिंसासे पाप उत्पन्न होता है तथापि जिनमंदिर, पाट शाला, सान्यायशाला आदिके बनवानेमें मिट्टी पत्थर पानी लकड़ी आदिके इकडे करनेसे आरंभ करनेवाला पुरुप महा पुण्यका अधिकारी होता है। (सागारधर्मामृत)