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पञ्चाध्यायी ।
[ दूसरी
प्रतिमारूपसे नहीं पाले जाते हैं, केवल अभ्यासरूपसे कभी किसी प्रतिमाका अभ्यास किया जाता है और कभी किसी प्रतिमाका अभ्यास किया जाता है उन्हें प्रतिमारूप व्रत नहीं कहते किन्तु अनियत व्रत कहते हैं । जो श्रावक प्रतिमारूपसे व्रतोंके पालनेमें असमर्थ हैं वे अनियत व्रतोंसे ही शुभ कर्मबन्ध करते हैं ।
बारह तपका उपदेश
तपो द्वादशधा देधा बाह्याभ्यन्तरभेदतः ।
कृत्स्नमन्यतमं वा तत्कार्यचानतिवीर्यसात् ॥ ७४१
अर्थ — बाह्य और अभ्यन्तरके भेदसे तप बारह प्रकार कहा गया है * छह प्रकार बाह्य और छह प्रकार अभ्यन्तर । इन बारह प्रकारके तपोंको सम्पूर्णतासे अथवा इनमें से किसी एक को अपनी शक्तिके अनुसार करना चाहिये ।
ग्रन्थकारकी महान् प्रतिज्ञा
उक्तं दिङ्मात्रतोप्यत्र प्रसङ्गाद्वा गृहिव्रतम् ।
वक्ष्ये चोपासकाध्यायात्सावकाशात्सविस्तरम् ॥ ७४२ ॥
अर्थ- ग्रन्थकार कहते हैं कि यहांपर प्रसङ्गवश गृहस्थियोंके व्रत दिङ्मात्र हमने कह दिये हैं। आगे अवकाश पाकर उपासकाध्ययन ग्रन्थोंके आधारसे उन्हें विस्तारपूर्वक हम कहेंगे । x
यतियों के मूलगुण - यतेर्मूलगुणाश्चाष्टाविंशतिर्मूलवत्तरोः ।
नात्राप्यन्यतमेनोना नातिरिक्ताः कदाचन ॥ ७४३ ॥
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अर्थ-मुनियोंके मूलगुण भी अट्ठाईस हैं । वे ऐसे ही हैं जैसे कि वृक्षका मूल होता | विना मूलके जिस प्रकार वृक्ष नहीं ठहर सकता उसी प्रकार विना अठ्ठाईस मूलगुणोंके मुनिव्रत भी नहीं ठहर सकता । इन अठ्ठाईस मूलगुणों में से मुनियोंके न तो एक भी कम होता है और न अधिक ही होता है ।
अठ्ठाईस मूलगुणों के पालनेसे ही मुनिव्रत पलता सर्वैरेभिः समस्तैश्च सिद्धं यावन्मुनिव्रतम् ।
न व्यस्तैर्व्यस्तमात्रं तु यावदंशनयादपि ॥ ७४४ ॥
* अनशन, अवमोदर्य ( ऊनोदर ), वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, एकान्त शयन, ये छह बाह्य तपके भेद हैं । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान ये छह भेद अभ्यन्तर तपके हैं। इनका विशेष विवरण सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक से जानना चाहिये ।
' X ग्रन्थकारने ऐसी बड़ी २ प्रतिज्ञायें कई प्रकरणों की हैं। यदि आज समग्र ग्रन्थसिन्धुकी उपलब्धि होती तो न जानें कितने अपूर्व तत्त्वरत्नों की प्राप्ति होती !