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पश्चाध्यायी।
दूसरा
जिनेन्द्र पूजनका उपदेशपूजामप्यहतां कुर्याद्या प्रतिमासु तद्धिया। स्वरव्यञ्जनानि संस्थाप्य सिद्धानप्यर्चयेत्सुधीः ॥ ७३२॥
अर्थ- सद्बुद्धि गृहस्थको तेरहवें गुणस्थानवी, वीतराग, सर्वज्ञ अरहन्त भगवानकी पूजन करना चाहिये अथवा उन अरहन्तोंकी प्रतिमाओंमें आहन्तकी बुद्धि रख कर स्वर व्यञ्जनोंकी स्थापना करके उ.की पूजा करना चाहिये अथवा स्वर व्यञ्जनोंकी स्थापना करके सिद्ध भगवानकी भी पूजन करना चाहिये ।
आचार्य, उपाध्याय, साधुओंकी पूजाका उपदेशसूर्युपाध्यायसाधूनां पुरस्तत्पादयोःस्तुतिम् ।
प्राग्विधायाष्टधा पूजां विध्यात् स त्रिशुद्धितः ॥ ७३३ ॥
अर्थ-आचार्य, उपाध्याय और साधुओंके चरणोंकी पहले स्तुति करके फिर मन, वचन, कायकी शुद्धतासे श्रावकको उन तीनों परमेष्ठियोंकी अष्ट द्रव्यसे पूजा करना चाहिये ।
सहधर्मी और ब्रह्मचारियोंकी विनय करनेका उपदेशसम्मानादि यथाशक्ति कर्तव्यं च सधर्मिणाम्। वतिनां चेतरेषाम्वा विशेषाद्ब्रह्मचारिणाम् ॥७३४ ॥
अर्थ--जो अपने समान धर्मसेवी ( अपने समान श्रावक ) हैं उनका यथाशक्ति आदर सत्कार करना चाहिये, तथा जो व्रती श्रावक हैं अथवा सम्यग्दृष्टि हैं उनका भी यथाशक्ति आदर सत्कार करना चाहिये, और विशेष रीतिसे ब्रह्मचारियोंका आदर सत्कार करना चाहिये।
व्रतयुक्त स्त्रियोंको बिनय करनेकी उपदेशनारीभ्योऽपि व्रताढ्याभ्यो न निषिडं जिनागमे ।
देयं सम्मानदानादि लोकानामविरुद्धतः ॥ ७३५ ॥ अर्थ--व्रतयुक्त जो स्त्रियां हैं, उनका भी लोकसे अविरुद्ध आदर सत्कार करना जैनागममें निषिद्ध नहीं है । भावार्थ--जिस प्रकार व्रती पुरुष सन्मान दानके योग्य हैं उसी प्रकार व्रत युक्त स्त्रियां भी सन्मान दानके योग्य हैं, क्योंकि पूज्यताका कारण चारित्र है वह दोनोंमें समान है । इतना विशेष है कि स्त्रियोंका सन्मान आदि लोकसे अविरुद्ध करना च हिये इसका आशय यह है कि लोकमें जितना सन्मान उन्हें प्राप्त है उसीके अनुसार देना चाहिये।
जिनचैत्यगृह बनाने का उपदेशजिन चैत्यगृहादीनां निर्माणे सावधानता। यथा सम्पविधेयास्ति दृष्या नाऽवद्यलेशतः ॥ ७३६ ॥