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पञ्चाध्यायी।
दूसरा
VAAMANA
उस श्रावकके लिये दिया गया है जो व्रतों को पालता है, नियम पूर्वक त्याग व्रती श्रावक ही कर सकता है, अव्रती नियमपूर्वक इनका त्याग नहीं कर सकता है, परन्तु अष्टमूल गुणोंका धारण अव्रती श्रावकके लिये भी आवश्यक कहा गया है।।
___ अतीचारोंके त्यागका उपदेशत्यजेद्दोषाँस्तु तत्रोक्तान सूत्रोतीचारसंज्ञकान् ।
अन्यथा मद्यमांसादीन् श्रावकः कः समाचरेत् ॥ ७२८॥
अर्थ-व्रतोंके पालनेमें जो अतीचार * नामक दोष सूत्रोंमें कहे गये हैं उन्हें भी छोड़ना चाहिये । मद्य मांसादिकोंका तो कौन श्रावक सेवन करेगा ? अर्थात् मद्यादिक तो प्रथमसे ही सर्वथा त्याज्य हैं।
दान देनेका उपदेशदानं चतुर्विधं देयं पात्रबुद्ध्याऽथ श्रद्धया ।
जघन्यमध्यमोत्कृष्टपात्रेभ्यः श्रावकोत्तमैः ॥ ७२९ ॥ - अर्थ-उत्तम श्रावकोंको जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट पात्रोंके लिये पात्रबुद्धि तथा श्रद्धापूर्वक चार प्रकारका दान देना चाहिये । भावार्थ-छठे गुणस्थानवर्ती मुनि उत्तम पात्र कहे जाते हैं, एक देशव्रतके धारक पञ्चम गुणस्थानवर्ती श्रावक मध्यम पात्र कहे जाते हैं, .
और व्रतरहित चतुर्थगुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि पुरुष जघन्य पात्र कहे जाते हैं। जैसा पात्र होता है उसी प्रकारका दानके फलमें भेद हो जाता है। जिस प्रकार क्षेत्रकी विशेषतासे वनस्पतिके फलों में विशेषता देखी जाती है उसी प्रकार पात्रकी विशेषतासे दानके फलमें विशेषता होती है। जिस प्रकार पात्रकी विशेषतासे दानके फलमें विशेषता होती है उसी प्रकार दाताकी श्रद्धा, पानबुद्धि, भक्ति, निस्पृहता आदि गुणोंसे भी दानके फलमें विशेषता होती है। दानका फल भोगभूमि आदि उत्तम सुखस्थान कहे गये हैं। धनोपार्जनसे रात दिन आरम्भननित पापबन्ध करनेवाले श्रावकोंको पात्रदान ही पुण्यबन्धका मूल कारण है । इसलिये प्रतिदिन यथाशक्ति चार प्रकारका दान करना चाहिये । यद्यपि वर्तमान समयमें उत्तम पात्रोंका अभावसाहो गया है तथापि उनका सर्वथा अभाव नहीं है । मुनिक न मिलनेपर उत्तम श्रावक, ब्रह्मचारी, उदासीन, सहधर्मी जनोंको दान देना चाहिये ।दान चार प्रकार है-आहारदान, औषधदान, अभयदान और ज्ञानदान । यद्यपि सामान्य दृष्टिसे चारों ही दान विशेष पुण्यके कारण हैं तथापि इन चारोंमें उत्तरोत्तर विशेषता है । आहारदान एकवारकी क्षुधाको निवृत्त करता है; औषधदान अनेक दिगोंके लिये शारीरिक रोगोंको दूर कर देता, है अभयदान एक जन्मभरके लिये निर्भय बना " अतीचागेशभञ्जनम् " किसी व्रतके एक अंशमें दोष लगनेको अतीचार कहते हैं।
(सागारधर्मामृत ।)