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अध्यायं ]
सुबोधिनी टीका।
वह इन्द्रिय सम्बन्धी विषय हो अथवा नहीं हो। भावार्थ-चाहे संसारके विषयमें क्रिया हो चाहे धर्मके विषयमें हो, कैसी भी क्रिया हो, विना इच्छाके कोई क्रिया नहीं हो सकती है, इसलिये आचार्यकी धर्मादेशादिक क्रियायें भी इच्छापूर्वक ही हैं, इसलिये आचार्य भी इच्छा सहित ही हैं न कि इच्छा रहित ?
उत्तरनैवं हेतोरतिव्याप्तेरारादक्षीणमोहिषु
वन्धस्य नित्यतापत्तेर्भवेन्मुक्तरसंभवः ॥७०७॥
अर्थ-शङ्काकारकी उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है क्योंकि 'इच्छाके विना क्रिया नहीं होती है। इस लक्षगकी क्षीणकषाय वालोंमें अतिव्याप्ति है, बारहवें गुणस्थानमें क्रिया तो होती है परन्तु बहां इच्छा नहीं है यदि बारहवें गुणस्थानमें भी क्रियाके सद्भावसे इच्छा, मानी जाय तो वन्ध सदा ही होता रहेगा। और बन्धकी नित्यतामें मुक्ति ही असंभव हो जायगी। भावार्थ-ऐसा नियम नहीं है कि विना इच्छाके क्रिया हो ही नहीं सक्ती है, दशवें गुणस्थानके अन्तमें और बारहवें गुणस्थानमें क्रिया तो है परन्तु इच्छा नहीं है क्योंकि इच्छा लोभकी पर्याय है, और लोभ कषाय वहां पर नष्ट हो चुकी है यदि दशवे गुणस्थानके अन्तमें
और बारहवें गुणस्थानमें भी इच्छाका सद्भाव माना जाय तो आत्मामें कर्मबन्धका कभी अन्त नहीं हो सकेगा सदा बन्ध ही होता रहेगा। क्योंकि बन्ध कषायसे होता है, कारणके सद्भावमें कार्यका होना अवश्यंभावी है, बन्धकी नित्यतामें आत्मा कभी भी मुक्त नहीं हो सक्ता है, इसलिये मोक्षका होना ही असम्भव हो जायगा । मोक्षकी असंभवतामें आत्मा सदा संसारावस्थामें दुःखी ही रहेगा। उसके आत्मिक सुख गुणका कभी भी विकाश न हो सकेगा। इसलिये विना इच्छाके कर्म नहीं हो सक्ता है, यह शंकाकारकी शंका निर्मूल है।
सारांश- : ततोस्त्यन्तः कृतो भेदः शुढे नांशतस्त्रिषु ।। निर्विशेषात्समस्त्वेष पक्षो माभूहिः कृतः ॥ ७०८॥
अर्थ-इसलिये आचार्य, उपाध्याय, साधु, इन तीनोंमें विशुद्धिके नाना अंशोंकी अपेक्षासे अन्तरंग कृत भेद है, सामान्य रीतिसे तीनोंमें ही समानता है। उन तीनोंमें बाह्य क्रियाओंकी अपेक्षासे भेद बतलाना यह पक्ष ठीक नहीं है।
___ आगमका आशयकिश्चास्ति यौगिकीरूढिः प्रसिद्धा परमागमे । ... विना साधुपदं न स्यात्केवलोत्पत्तिरञ्जसा ॥ ७०९ ॥