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: पश्चाध्यायी। तत्र चोक्तमिदं सम्यक् साक्षात्सर्वार्थसाक्षिणा।
क्षणमस्ति स्वतः श्रेण्यामधिरूढस्य तत्पदम् ॥.७१० ॥
अर्थ-यौगिकरीति और रूढ़िसे यह बात परमागम में प्रसिद्ध है कि विना साधु पद प्राप्त किये केवलज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। वहीं पर सर्वज्ञ देवने यह बात भी भले प्रकार प्राट कर दी है कि श्रेणी चढ़नेवालेको क्षणमात्रमें साधुपद स्वयं प्राप्त हो जाता है।
उसीका स्पष्ट कथनयतोऽवश्यं स सूरिर्वा पाठकः श्रेण्यनेहासि । कृत्स्नचिन्तानिरोधात्मलक्षणं ध्यानमाश्रयेत् ॥ ७११ ॥
अर्थ-क्योंकि श्रेणी चढ़नेके समयमें आचार्य अथवा उपाध्याय सम्पूर्ण चिन्ता निरोधात्मक लक्षणवाले ध्यानको करता है।
अतएवततः सिद्धमनायासात्तत्पदत्वं तयोरिह ।
नूनं बायोपयोगस्य नावकाशोस्ति यत्र तत् ॥ ७१२ ॥
अर्थ-इस लिये आचार्य और उपाध्यायको साधुपना अनायास (विना किसी विशेषताके) ही सिद्ध है । वहां पर बाह्य उपयोगका अवकाश नहीं है।
नपुनश्चरणं तत्र छेदोपस्थापनादिवत् । प्रागादायक्षणं पश्चात् सूरिः साधुपदं श्रयेत् ॥ ७१३ ॥
अर्थ—ऐसा भी नहीं है कि आचार्य पहले छेदोपस्थापना चारित्रको धारण करके पीछे साधुपदको धारण करता है । भावार्थ-यदि कोई ऐसी आशंका करै कि 'आचार्य शासन क्रियाके पीछे प्रायश्चित्त लेता है फिर साधुपदको पाता है, यह आशंका ठीक नहीं है क्योंकि यह बात पहले अच्छी तरह कही जाचुकी है कि आचार्यकी क्रियायें दोषाधायक नहीं हैं निससे कि वह छेद्रोपस्थापना चारित्रको पहिले ग्रहणकर पीछे साधुपदको प्राप्त करै किन्तु उसका अन्तरंग साधुके ही समान है, साधुकीसी ही सम्पूर्ण क्रियायें हैं केवल बाह्य क्रियाओंमें भेद है वह भेद बुद्धिका कारण नहीं है।
ग्रन्थकारका आशय
उक्तं दिङ्मात्रमत्रापि प्रसाङ्गाद्गुरु रक्षणम् ।
शेषं विशेषतो वक्ष्ये तत्स्वरूपं जिनागमात् ॥ ७१४ ॥
अर्थ-प्रपङ्ग पाकर यॉपर गुरुका लक्षण दिङ्मात्र कहा गया है, बाकीका उनका विशेष स्वरूप जिनेन्द्रकथित आगमके अनुसार कहेंगे ।