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अध्याय ।
सुबोधिनी टीका।
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धर्मके फलमें, निश्चयबुद्धि विश्वासबुद्धि रखना, इसीका नाम आस्तिक्य है। जिस प्रकार आस्मा आदि पदार्थोके धर्म हैं उसी प्रकार उनमें यथार्थ विश्वस्तबुद्धि रखना ही आस्तिक्य है।
जीवमें अस्तिक्यअस्त्यात्मा जीवसंज्ञो यः स्वतः सिद्धोप्यमूर्तिमान् । चेतनः स्यादजीवस्तु यावानप्यस्त्यचेतनः ॥ ४५३ ॥
अर्थ-जिसकी जीव संज्ञा है वही आत्मा है, आत्मा स्वतःसिद्ध है अमूर्त है और चेतन है तथा जितना भी अजीव है वह सब अचेतन है।
___ आत्मा ही कर्ता, भोक्ता और मोक्षाधिकारी हैअस्त्यात्माऽनादितो बद्धः कर्मभिः कार्मणात्मकैः। कर्ता भोक्ता च तेषां हि तत्क्षयान्मोक्षभाग्भवेत् ॥४५४॥
अर्थ--कार्माणवर्गणासे बने हुए कर्मोसे यह आत्मा अनादिकालसे बँधा हुआ है और उन्हीं कर्मोंका कर्ता है तथा उन्हींका भोक्ता है और उन्हीं कर्मोंके क्षय होनेसे मोक्षका अधिकारी हो जाता है। ___ अस्ति पुण्यं च पापं च तहेतुस्तत्फलं च वै ।
आस्रवाद्यास्तथा सन्ति तस्य संसारिणोऽनिशम् ॥ ४५५ ॥
अर्थ-उस संसारी जीवके उन कर्मोंके निमित्तसे निरन्तर पुण्य और पाप तथा उनका फल होता रहता है। उसी प्रकार आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा भी होते हैं।
अप्येवं पर्ययादेशाद्वन्धो मोक्षश्च तत्फलम् ।
अथ शुद्धनयादेशाच्छुडः सर्वोपि सर्वदा ॥ ४५६ ॥
अर्थ—यह आत्मा पर्यायदृष्टिसे बंधा हुआ है और उसी पर्यायदृष्टिसे मुक्त भी होता है, तथा उनके फलोंका भोक्ता भी है, परन्तु शुद्ध द्रव्यार्थिक दृष्टिसे सभी आत्माएं सदा शुद्ध हैं अर्थात् न बन्ध है और न मोक्ष है।
जीवका स्वरूपतत्रायं जीवमंज्ञो यः स्वसंवेद्यश्चिदात्मकः । सोहमन्ये तु रागाद्या हेयाः पौगलिका अमी ॥४५७॥
अर्थ--जो यह जीवसंज्ञाधारी आत्मा है वह स्वसंवेद्य ( अपने आपको आप ही जाननेवाला) है, ज्ञानवान है और वही “सोहं" है अर्थात् उसी ज्ञानधारी जीवात्मामें "वह मैं हूं" ऐसी बुद्धि होती है। बाकी जितने भी रागादिक पुद्गल हैं वे सभी त्यागने योग्य हैं।