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१२६ ] पश्चाध्यायी।
[ दूसरी उन बातोंकी चाहना करना अथवा अपनेमें इन बातोंको होती हुई देख कर, अपनेसे पर पुरुषों के लिये इच्छा करना, यह सब मिथ्या है। ____ भावार्थ-इस श्लोकका ऐसा भी आशय है कि जब दूसरों से अपनेमें और अपनेसे दूसरों में सुख दुःखादि होनेकी इच्छा करता है तब अपनेमें दुःखादिकके होने पर, उनके होने में परको कारण समझता है, इसलिये उससे वैरभाव करने लगता है। इसी कारण शत्रु मित्रकी कल्पना भी अन्य जीवोंमें करने लगता है परन्तु यह इसकी अज्ञता है। संसारमें कोई किसीका शत्रु मित्र नहीं है। यदि वास्तवमें कोई जीवका शत्रु है तो कर्म है, मित्र है तो धर्म है, अन्य सब कल्पना मात्र है।
मिथ्यादृष्टिके विचारअस्ति यस्यैतदज्ञानं मिथ्यादृष्टिः स शल्यवान् । अज्ञानाद्धन्तुकामोपि क्षमो हन्तुं न चाऽपरम् ॥ ४४९ ॥
अर्थ-जिस पुरुषके ऊपर कहा हुआ अज्ञान है, वही मिथ्यादृष्टि है और वही शल्यवाला है । अज्ञानसे वह दूसरेको मारना चाहता है, परन्तु वह उसे मारनेमें समर्थ नहीं है।
अनुकम्पाके भेदसमता सर्वभूतेषु यानुकम्पा परत्र सा।
अर्थतः स्वानुकम्पा स्याच्छल्यवच्छल्य वर्जनात् ॥ ४५० ॥
अर्थ-अनुकम्पा दो प्रकारकी है। एक पराऽनुकम्पा, दूसर, स्वानुकम्पा । समग्र जीवोंमें समताभाव धारण करना परमें अनुकम्पा कहलाती है और कांटेकी तरह चुभनेवाली शल्यका त्याग करदेना स्वाऽनुकम्पा कहलाती है। वास्तवमें स्वानुकम्पा ही प्रधान है।
प्रधानतामें कारणरागाद्यशुद्धभावानां सद्भावे बन्ध एव हि ।
न बन्धस्तदसद्भावे तद्विधेया कृपाऽऽत्मनि ॥ ४५१ ॥
अर्थ-रागादिक अशुद्ध भावोंके रहते हुए बन्ध ही निश्चयसे होता है और उनके नहीं होने पर बन्ध नहीं होता । इसकिये ( जिससे वैर भावका कारण बन्ध ही न होवे ) ऐसी कृपा आत्मामें अवश्य करनी चाहिये ।
__ आस्तिक्यका लक्षणआस्तिक्यं तत्त्वसद्भावे स्वतः सिद्धे विनिश्चितिः।
धर्मे हेतौ च धर्मस्य फले चाऽऽत्मादि धर्मवत् ॥ ४५२ ॥ .... अर्थ-स्वतःसिद्ध ( अपने आप सिद्ध ) तत्त्वोंके सद्भावमें, धर्ममें, धर्मके कारणमें,