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१७६] पञ्चाध्यायी।
[दूसरा साधू साधुरिवात्मज्ञौ शुद्धौ शुद्धोपयोगिनौ ।।.६९४ ॥ नापि कश्चिद्विशेषोस्ति तयोस्तरतमौ मिथः। नैताभ्यामन्तरुत्कर्षः साधोरप्यतिशायनात् ॥ ६९५ ॥ लेशतोऽस्ति विशेषश्चेन्मिथस्तेषां बहिःकृतः। का क्षतिर्मूलहेतोः स्यादन्तःशुडेः समत्वतः ॥ ६९६ ॥ नास्त्यत्र नियतः कश्चिद्युक्तिस्वानुभवागमात् । मन्दादिरुदयस्तेषां सूर्युपाध्यायसाधुषु ॥ ६९७ ॥
अर्थ-आचार्य और उपाध्याय दोनों ही समान हैं । जो कारण आचार्यके हैं वे ही उपाध्यायके हैं । दोनों ही साधु हैं अर्थात् साधुकी सम्पूर्ण क्रियायें-अट्ठाईस मूल गुण और चौरासी लाख उत्तर गुण वे दोनों पालते हैं । साधुके समान ही आत्मानुभव करनेवाले हैं। दोनों ही शुद्ध हैं, शुद्ध-उपयोग सहित हैं। आचार्य और उपाध्यायमें परस्पर भी कोई तरतम रूपसे विशेषता नहीं पाई जाती है, और न इन दोनोंसे कोई विशेष अतिशय साधुमें ही पाया जाता है । ऐसा नहीं है कि साधुमें कोई अन्तरंग विशेष उत्कर्ष हो वह उत्कर्ष ( उन्नतता ) इनमें न हो, किन्तु तीनों ही समान हैं । यदि लेशमात्र विशेषता है तो उन तीनोंमें वाह्य क्रियाकी अपेक्षासे ही है अन्तरंग तीनोंका समान है, इसलिये बाह्य क्रियाओंमें भेद होनेपर भी अन्तःशुद्धि तीनोंमें समान होनेसे कोई हानि नहीं है, क्योंकि मूल कारण अन्तःशुद्धि है वह तीनोंमें समान है । आचार्य, उपाध्याय और साधु तीनोंमें ही संज्वलनका मन्द, मध्यम, तीव्र उदय कोई नियमित नहीं है, कैसे भी अंशोंका उदय हो यह बात युक्ति, स्वानुभव और आगमसे सिद्ध है।
प्रत्येकं बहवः सन्ति सूर्युपाध्यायसाधवः।।
जघन्यमध्यमोत्कृष्टभावैश्चैकैकशः पृथक् ॥६९८ ॥
अर्थ-आचार्य उपाध्याय और साधु तीनोंके ही अनेक भेद हैं, वे भेद जघन्य, . मध्यम, उत्कृष्ट भावोंकी अपेक्षासे हो जाते हैं।
यथाकश्चित्सूरिः कदाचिदै विशुद्धिं परमां गतः। मध्यमां वा जघन्यां वा विशुद्धिं पुनराश्रयेत् ॥ ६९९ ॥
अर्थ-कोई आचार्य कभी उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त हो जाता है, फिर वही कभी मध्यम अथवा जघन्य विशुद्धिको प्राप्त हो जाता है।