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अध्याय]
सुबोधिनी टीका।
अर्थ-चारित्रमोहनीयका उदय कुछ करता ही न हो ऐसा भी नहीं है । यद्यपि वह दर्शन मोहनीयके कार्यके लिये असमर्थ है तथापि अपने कार्यके लिये अवश्य समर्थ है।
चारित्र मोहनीयका कार्यकार्य चारित्रमोहस्य चारित्राच्च्युतिरात्मनः।
नात्मदृष्टस्तु दृष्टित्वान्न्यायादितरदृष्टिवत् ॥ ६९०॥
अर्थ-आत्माके चारित्र गुणकी क्षति करना ही चारित्र मोहनीयका कार्य है। चारित्र मोहनीयका कार्य आत्माके दर्शन गुणकी क्षति करना नहीं हो सक्ता है । क्योंकि सम्यग्दर्शन गुण जुदा ही है इसलिये उसका घातक भी जुदा ही कर्म है । निसप्रकार दूसरेके दर्शनमें दूसरा बाधा नहीं पहुंचा सक्ता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन गुणमें चारित्र मोहनीय बाधा नहीं पहुंचा सकता है । उसका काम केवल चारित्र गुणको घात करनेका है।
दृष्टान्तयथा चक्षुः प्रसन्नं वै कस्यचिदैवयोगतः।
इतरत्राक्षतायेपि दृष्टाध्यक्षान्न तत्क्षतिः ॥ ६९१॥
अर्थ-जिस प्रकार किसीका चक्षु रोग रहित है और दैवयोगसे दूसरे किसीके चक्षुमें • किसी प्रकारकी पीड़ा है तो उस पीड़ासे निर्मल चक्षुवालेकी कोई हानि नहीं हो सक्ती है यह बात प्रत्यक्ष सिद्ध है।
कषायोंका कार्यकषायाणामनुद्रेकश्चारित्रं तावदेव हि ।
नानुद्रेकः कषायाणां चारित्राच्च्चुतिरात्मनः ॥ ६९२॥
अर्थ-जबतक कषायोंका अनुदय रहता है तभी तक चारित्र है। जब कषायोंका उदय हो जाता है तभी आत्माके चारित्र गुणकी क्षति हो जाती है।
सारांशततस्तेषामनुद्रेकः स्यादुद्रेकोऽथवा स्वतः। नात्मदृष्टेः क्षतिनं दृङ्माहस्योदयादृते ॥ ६९३ ॥
अर्थ-इसलिये कषायोंका अनुदय हो अथवा उदय हो शुद्धात्मानुभवकी किसी प्रकार क्षति नहीं हो सक्ती है जबतक कि दर्शन मोहनीयका उदय न हो।
भावार्थ-दर्शनमोहनीयका उदय ही शुद्धात्माके अनुभवका बाधक है। कषायों (चारित्र मोहनीय) का उदय चारित्रमें बाधक है।
- आचार्य, उपाध्यायमें साधुको समानताअथ सूरिरुपाध्यायो द्वावेतौ हेतुतः समौ ।