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अध्याय। 1
सुबोधिनी टीका।
चारित्रकी क्षति और अक्षतिमें कारणसति संज्वलने नोच्चैः स्पर्धका देशघातिनः। तद्विपाकोस्त्यमन्दो वा मन्दोहेतुः क्रमाद्वयोः ॥ ६८०॥ संक्लेशस्तत्क्षतिर्नूनं विशुडिस्तु तदक्षतिः । सोऽपि तरतमांशांशैः सोप्यनेकैरनकधा ॥ ६८१॥ अस्तु यद्वा न शैथिल्यं तत्र हेतुवशादिह । तथाप्येतावताचार्यः सिद्धो नात्मन्यतत्परः ॥ ६८२ ।। तत्रावश्यं विशुद्ध्यंशस्तेषां मन्दोदयादिति। संक्लेशांशोथवा तीब्रोदयान्नायं विधिः स्मृतः ।। ६८३ ॥ किन्तु देवाविशुद्ध्यंशः संक्लेशांशोथवा कचित् । तविशुद्धेर्विशुद्ध्यंशः संक्लेशांशोधः पुनः ॥ ६८४॥ तेषां तीव्रोदयात्तावतावानत्र वाधकः । सर्वतश्चेत्प्रकोपाय नापराधोपरोस्त्यतः ॥ ६८५ ॥ तेनात्रैतावता नूनं शुखस्यानुभवच्युतिः। कर्तुं न शक्यते यस्मादत्रास्त्यन्यः प्रयोजकः ॥ ६८६ ॥
अर्थ-आचार्य परमेष्ठीके अनन्तानुबन्धि, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायका तो अनुदय ही है, केवल संज्वलन कषायका उनके उदय है। संज्वलन कषाय देशघाती है। उसके स्पर्धक सर्वघाती नहीं हैं । उस एकदेश घात करनेवाली संज्वलन कषायका विपाक यदि तीव्र हो तो चारित्रकी क्षति है, यदि उसका विपाक मन्द हो तो चारित्रकी कोई क्षति नहीं है। संज्वलन कषायकी तीव्रता चारित्रकी क्षतिका कारण है और उसकी मंदता चारित्रकी क्षतिका कारण नहीं है । इसका कारण यह है कि संन्वलन कषायकी तीव्रतासे आत्मामें संक्लेश होता है और संक्लेश चारित्रके क्षयका कारण है। संज्वलन कषायकी मन्दतासे आत्मा विशुद्ध होता है । और विशुद्धि चारित्रके क्षयका कारण नहीं है किन्तु उसकी वृद्धिका कारण है । यह संक्लेश और विशुद्धि उसी प्रकारसे कम बढ़ होती रहती है जिस प्रकारसे कि संज्वलन कषायके विपाकमें तीव्रता और मन्दताके अंशोंमें तरतमता होती रहती है। यह तरतमता अनेक भेदों में विभाजित की जाती है । यह चारित्रकी क्षति और अक्षतिका कारण कहा गया है परन्तु आचार्यके किसी कारणवश शिथिलता नहीं आती है, और यदि उनके संज्वलन कषायकी तीव्रतासे थोड़े अंशोंमें चारित्रकी क्षति भी हो जाय तो भी आचार्य स्वात्मामें अतत्पर (अप्तावधान) नहीं सिद्ध हो सकते हैं। किन्तु अपने आत्मामें सदा तत्पर ही हैं । संज्वलन कषायके मन्द होनेसे आचार्यके विशुद्धिके अंश