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पञ्चाध्यायी।
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"एवं मुनित्रयी ख्याता महती महतामपि ।
तथापि तद्विशेषोऽस्ति क्रमात्तातमात्रकः ॥ ६७५ ॥
अर्थ-महान् पुरुषोंमें सबसे श्रेउ यह मुनिषयी ( आचार्य / उगध्याय, साधु )प्रसिद्ध है । तथापि उसमें क्रमसे तरतम रूपसे विशेषता भी है।
भावार्थ-सामान्य रीतिसे आचार्य, उपाध्याय और साधु तीनों ही मूलगुण, उत्तरगुणोंके धारक समान हैं तथापि विशेष कार्योकी अपेक्षासे उन तीनोंमें विशेषता भी है।
__ आचार्यमें विशेषतातत्राचार्यः प्रसिद्धोऽस्ति दीक्षादेशाद्गगाग्रणीः । न्यायादाऽऽदेशतोऽध्यक्षात्सिद्धः स्वात्तनि तत्परः ॥ ६७६ ॥
अर्थ-दीक्षा देनेसे, आदेश करनेसे गणका स्वामी आचार्य प्रसिद्ध है । तथा युक्ति आगम, अनुभवसे वह अपने आत्मामें तल्लीन है यह बात भी प्रसिद्ध है।
इसीका खुल.सा. अर्थान्नातत्परोप्येष दृङ्मोहानुदयात्सतः । __ अस्ति तेनाविनाभूतः शुद्धात्मानुभवः स्फुटम् ॥ ६७७॥
अर्थ-अर्थात् वह आचार्य दर्शन मोहनीयका अनुदय होनेसे अपने आत्मामें तल्लीन ही है। उसे उस विषयमें तल्लीनता रहित नहीं कहा जा सक्ता है क्योंकि दर्शन मोहनीयके . अनुदयका अविनाभावी निश्चयसे शुद्धात्माका अनुभव है । इसलिये दर्शन मोहनीयका अनुदय होनेसे आचार्य शुद्धात्माका अनुभव करता ही है।
___और भी विशेषताअप्पस्ति देशतस्तत्र चारित्रावरणक्षतिः। . बाह्याकेवलं न स्यात् क्षतिर्वा च तदक्षतिः ॥ ६७८॥ .
अर्थ-आचार्य के शुद्धात्माके अनुभवका अविनाभावी दर्शन मोहनीय कर्मका तो अनुदय है ही, साथमें एक देश चारित्रमोहनीय कर्मका भी उसके क्षय हो चुका है। चारित्रके क्षय अथवा अक्ष्यमें बाह्यपदार्थ केवल कारण नहीं हैं।
असन्युपादानहेतोश्च तत्क्षतिर्वा तदक्षतिः । तदापि न बहवस्तु स्यात्तहेतुरहेतुतः ॥ ६७९ ॥
अर्थ--उपादान कारण मिलने पर चारित्रकी हानि अथवा उसका लाभ होसक्ता है। चारित्रकी क्षति अथवा अक्षतिमें बाह्य वस्तु हेतु नहीं है। क्योंकि बाह्य वस्तु उसमें कारण । नहीं पड़ती है।