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१७४] .. पञ्चाध्यायी।
दूसरा बढ़ जाते हैं अथवा उक्ते कषायके तीवोदयसे संक्लशके अंश बढ़ जाते हैं, यह समग्र विधान शुद्धात्माके अनुभवमें कुछ कार्यकारी नहीं है, चाहे दैववश उनके विशुद्धिके अंश बढ़ जांय चाहे संक्लेशके अंश बढ़ जांय परन्तु आचार्यके शुद्धात्मानुभवमें बाधा नहीं आती है । संज्वलन कषायकी मन्दतासे चारित्रमें विशुद्धयंश प्रकट हो जाता है और संज्वलन कषायकी तीव्रतासे चारित्रमें संक्लेशांश प्रकट हो जाता है बस इतनी ही बाधा समझनी चाहिये । यदि संज्वलन कषायकी आचार्यके तीव्रता हो तो वह तीव्रता कुछ प्रकोप (प्रमाद) लाती है पाकी और कोई अपराध (शुद्धात्माकी च्युतिका कारण) नहीं कर सकती है । इसलिये उपर्युक्त कथनसे यह बात भलीभांति सिद्ध हो जाती है कि संज्वलन कषायकी तीव्रता अथवा चारित्रकी कुछ अंशोंमें क्षति आचार्यके शुद्धात्मानुभवका नाश नहीं कर सकती । क्योंकि शुद्धात्मानुभवके नाशका कारण और ही है।
शुद्धात्माके अनुभवमें कारणहेतुःशुद्धात्मनो ज्ञाने शमो मिथ्यात्वकर्मणः प्रत्यनीकस्तु तत्रोच्चैरशमस्तत्र व्यत्ययात् ॥ ६८७ ॥
अर्थ-शुद्धात्माके ज्ञानमें कारण मिथ्यात्व कर्मका उपशम है। इसका उल्टा मिथ्यात्व कर्मका उदय है, मिथ्यात्व कर्मके उदय होनेसे शुद्धात्माका अनुभव नहीं हो सक्ता है।
इसीका स्पष्ट अर्थदृङ्मोहेऽस्तंगते पुंसः शुद्धस्यानुभवो भवेत् ।
न भवेविघ्नकरः कश्चिचारित्रावरणोदयः ॥ ६८८॥
अर्थ-दर्शनमोहनीय कर्मका अनुदय होनेपर आत्माके शुद्धानुभव होता है । उसमें चारित्रमोहनीयका उदय विघ्न नहीं कर सकता है।
भावार्थ-शुद्धात्मानुभवकी सम्यग्दर्शनके साथ व्याप्ति (सहकारिता) है। सम्यग्दर्शनके होनेमें दर्शनमोहनीयका अनुदय मूल कारण है । इसलिये दर्शनमोहनीयका अनुदय होने पर शुद्धात्माका अनुभव नियमसे होता है, उस शुद्धात्माके अनुभवमें चारित्र मोहनीयका उलय वाधक नहीं हो सकता है । क्योंकि चारित्र मोहनीयका उदय चारित्रके रोकनेमें कारण है, शुद्धात्माके अनुभवसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। अतएव आचार्यके यदि संकलन कषायका तीव्रोदय भी हो जाय तो भी उनके शुद्धात्मानुभवनमें वह बाधक नहीं हो सक्ता हां उनके चारित्रांशमें कुछ प्रमाद अवश्य करेगा । इसी वातको नीचे दिखाते हैं
न चाकिश्चित्करश्चैवं चारित्रावरणोदयः । दृङ्मोहस्य कृते नालं अलं स्वस्यकृते च तत् ॥ ६८९ ॥