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पञ्चाध्यायी।
[ दूसरा उपाध्याय होता है । उपाध्याय होने में मुख्य कारण शास्त्रोंका अभ्यास है, जो गुरू स्वयं उन शास्त्रोंका अध्ययन करता है तथा जो शिष्योंको अध्ययन कराता (पकाता) है वही उपाध्याय कहलाता है। उपाध्यायमें पढ़ने पढ़ानेके सिवा बाकी व्रतादिकोंका पालन आदि विधि मुनियोंके समान साधारण है। उपाध्याय धर्मका उपदेश कर सकता है, परन्तु आचार्यके समान धर्मका आदेश (आज्ञा) कभी नहीं कर सक्ता। बाकी आचार्योंके ही सहवासमें वह रहता है, उसी प्रकार निर्ग्रन्थ अवस्था रखता है, आचार्यके समान ही संयम, तप, शुद्ध चारित्र, और पांच आचारों (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक चारित्र, तप, वीर्य)को वह शुद्धबुद्धि उपाध्याय पालता है। मुनियोंके जो अट्ठाईस मूलगुण और चौरासी लाख उत्तर गुण बतलाये गये हैं उन्हें भी वह पालता है, परीषह तथा उपसर्गोको भी वह जितेन्द्रिय उपाध्याय जीतता है। यहां पर बहुत विस्तार न कर संक्षेपमें इतना ही कहना पर्याप्त है कि निश्चयसे उपाध्याय मुनिके समान ही अन्तरंग और बाह्यमें शुद्ध रूपका धारण करनेवाला है, बुद्धिमान् है, निष्परिग्रह नग्न दिगम्बर है, और गुणोंमें सर्व श्रेष्ठ है।
नयी प्रतिज्ञाउपाध्यायः समाख्यातो विख्यातोस्ति स्वलक्षणैः ।
अधुना साध्यते साधोलेक्षणं सिद्धमागमात् ॥ ६६६ ॥
अर्थ-उपाध्याय अपने लक्षणोंसे प्रसिद्ध है, उसका स्वरूप तो कहा जाचुका, अत्र साधुका लक्षण कहा जाता है जो कि आगमसे भलीभांति सिद्ध है। .
साधुका स्वरूममार्गो मोक्षस्य चारित्रं तत्सद्भक्तिपुरःसरम् । * साधयत्यात्मसिद्ध्यर्थ साधुरन्वर्थसंज्ञकः॥ ६६७ ॥ नोच्याच्चायं यमी किञ्चिडस्तपादादिसंज्ञया । न किञ्चिद्दर्शयेत्स्वस्थो मनसापि न चिन्तयेत् ॥ ६६८ ॥
आस्ते स शुद्धमात्मानमास्तिघ्नुवानश्च परम् । स्तिमिन्तान्तर्बहिस्तुल्यो निस्तरङ्गाब्धिवन्मुनिः ॥ ६६९॥ नादेशं नोपदेशं वा नादिशेत् स मनागपि । स्वगापवर्गमार्गस्य तद्विपक्षस्य किं पुनः॥ ६७०॥ वैराग्यस्य परां काष्ठामधिरूढ़ोधिकप्रभः ।
दिगम्बरो यथाजातरूपधारी दयापरः ॥ ६७१॥ * संशोधित पुस्तकमें " सङ्ग् भक्ति पुरःसरम् " ऐसा भी पाठ है । उसका अर्थ सम्यग्दर्शन पूर्वक होता है।