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पञ्चाध्यायी।
[दूसरा
पोषण करता है वह आचार्य है । ग्रन्यकार कहते हैं कि यह भी कहना अयुक्त है। धर्मका' आदेश और धर्मका उपदेश देना ही आचार्यका उपकार है । इसको छोड़कर मुनियोंका पालन पोषण करना आदिक आचार्योका उपकार नहीं है।
भावार्थ-मुनियोंका पालनपोषण करना आचार्यका कर्तव्य बतलाना दोनोंका ही स्वरूप बिगाड़ना है । पहले तो मुनिगण ही पालन पोषण किसीसे नहीं चाहते हैं और न उन्हें अपने पोषणका कभी विचार ही होता है। उनका मुख्य कर्तव्य ध्यानस्थ होना है। केवल शरीरकी परिस्थिति ठीक रखनेके लिये वे आहारार्थ नगरमें जाते हैं वहां नवधाभक्ति पूर्वक किसी श्रावकने उनका पड़गाहन किया तो बत्तीस अन्तरायोंको टालकर आहार उसके यहां ले लेते हैं, यदि किसीने पड़गाहन नहीं किया तो वे खेद नहीं करते हैं, सीधे वनको चले जाते हैं, यद्यपि मुनियोंकी वृत्ति भिक्षा है तथापि वह वृत्ति याचना नहीं कही जा सक्ती है। उन्हें आहारमें सर्वथा राग नहीं है परन्तु विना आहारके शरीर अधिक दिन तक तप करनेमें सहायक नहीं हो सक्ता है इसीलिये आहारके लिये उन्हें बाध्य होना पड़ता है । जिस पुरुषको किसी वस्तुकी आवश्यकता होती है वही याचक बनता है। मुनियोंने आवश्यकताओंको दूर करनेके लिये ही तो अखिल राज्य सम्पत्तिका त्याग कर यह निरीहवृत्ति-सिंहवृत्ति अङ्गीकार की है, फिर भी उन्हें याचक समझना नितान्त भूल है। श्रावक भी अपने आत्महितके लिये मुनियोंको आहार देता है न कि मुनियोंको पोष्य समझकर आहार देता है। इसलिये मुनियोंको स्वयं अपने पोषणकी इच्छा नहीं है और न आवश्यकता ही है फिर आचार्य उनका पोषक कैसे कहा जा सक्ता है । दूसरे-आचार्यका मुनियोंके साथ केवठ धार्मिक सम्बन्ध है-मुनियों को दीक्षा देना, उन्हें निज व्रतमें शिथिल देखकर सावधान करना, अथवा धर्मसे च्युत होनेपर उन्हें प्रायश्चित देकर पुनः तस्वस्थ करना, धर्मका उन्हें उपदेश देना, तथा धर्मका आदेश देना, तपश्चर्या में उन्हें सदा दृढ़ बनाना, मरणासन्न मुनिका समाधिमरण कराना इत्यादि कर्तव्य आचार्योका है धार्मिक कर्तव्य होनेसे ही आचार्योको रागरहित शासक कहा गया है। शासन करते हुए भी आचार्य प्रमादी नहीं हैं, किन्तु शुद्धान्तःकरण विशिष्ट आत्मध्यानमें तत्पर हैं इसलिये आचर्योको संवका पालक और पोषक कहना सर्वथा अयुक्त है।
अथवायद्वा मोहात्प्रमादादा कुर्याद्यो लौकिकी क्रियाम् ।
तावत्कालं स नाऽऽचार्योप्यस्ति चान्तद्वतच्युतः ॥ ६५७ ॥
अर्थ-अथवा मोहके वशीभूत होकर अथवा प्रमादसे जो लौकिक क्रियाको करता है उस कालमें वह आचार्य नहीं कहा जा सक्ता है, इतना ही नहीं किन्तु अन्तरंग व्रतसे च्युत (पतित ) समझा जाता है।