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अध्याय ।]
सुबोधिनी टीका। * भावार्थ-दान देना और जिन पूजन करना दोनों ही यद्यपि आरंभजनित कार्य हैं, .
और जहां आरंभ है वहां हिंसाका होना अवश्यंभावी है इसलिये उक्त दोनों कार्योंका आदेश तथा उपदेश बधका कारण है । दूसरे-दान देने में और जिनपूजन करनेमें शुभ राग होता है
और रागभाव हिंसात्मक है तथापि गृहस्थोंके लिये पात्रदान जिनपूजनादि शुभ प्रवृत्तिमय कार्योकी आज्ञा और उपदेश दोनों ही निषिद्ध नहीं किन्तु विहित हैं।
__ मुनियों के लिये सावध कर्मका निषेध*यद्वादेशोपदेशौ द्वौ स्तो निरवद्यकर्माण ।
यत्र सावद्यलेशोस्ति तत्रादेशो न जातुचित् ॥ ६५४ ॥ ___ अर्थ-अथवा मुनियोंके लिये, सर्वथा निर्दोष कार्यके विषयमें ही आदेश व उपदेश होसक्ता है । जहां पापका लेश भी हो वहां उनके लिये आदेश तो कभी हो ही नहीं सक्ता।
भावार्थ-जिस कार्यमें पापका थोड़ा भी लेश हो उसके विषयमें मुनियोंके लिये आदेशका सर्वथा निषेध है।
आशङ्का
सहासंयमिभिर्लोकैः संसर्ग भाषणं रतिम् ।
कुर्यादाचार्य इत्येके नासौ सूरिन चाहत:॥ ६५५॥ ___ अर्थ-असंयमी पुरुषोंके साथ सम्बन्ध, भाषण और प्रेन भी आचार्य करै, ऐसा भी कोई कहते हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि जो असंयमी पुरुषोंके साथ संम्बन्धादिक रखता है वह आचार्य नहीं कहा जासकता, और न वह जिनमतका अनुयायी है।
भावार्थ-आचार्यका सम्बन्ध केवल मुनियोंके साथ होता है। भाषण भी उन्हींके साथ होता है, सत्यधर्मके लक्षणमें भी यही कहा गया है कि सत्यधर्मका भाषी साधु पुरुषोंमें ही हित मित वचन बोलता है असाधुओंमें नहीं। आचार्यका मुनियोंके साथ भी केवल धार्मिक सम्बन्ध है, रागांश वहां भी नहीं है। इसलिये आचार्यका असंयमी पुरुषोंके साथ सम्बन्ध और रागादिक जो कहा गया है वह अयुक्त है।
अन्य दर्शनसंघसम्पोषकः सूरिः प्रोक्तः कश्चिन्मतेरिह। .
धर्मादेशोपदेशाभ्यां नोपकारोऽपरोऽस्त्यतः ॥ ६५६॥ अर्थ-कोई. दर्शनवाले आचार्यका स्वरूप. ऐसा भी कहते हैं कि जो संघका पालन
* इस श्लोकमें और ऊपरके श्लोकमें यद्यपि गृहस्थ और मुनिपद नहीं आया है तथापि "यद्वा" कहनेसे सिद्ध होता है कि उपयुक्त कथन गृहस्थोंके लिये है और यह कथन मुनियोंके लिये है। तथा यही संगत प्रतीत होता है ।