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'अध्याय]
सुबोधिनी टीका।
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अर्थ-उपदेशोंसे आदेशमें यही विशेष भेद है कि उपदेशमें जो वात कही जाती है वह आज्ञारूप ग्राह्य नहीं होती। मानना न मानना शिष्यकी इच्छापर निर्भर है परन्तु आदेश में यह बात नहीं है, वहां तो जो बात गुरुने बताई वह आज्ञारूपसे ग्रहण ही करनी पड़ती है “ गुरुके दिये हुए व्रतको मैं ग्रहण करता हूं" यह आदेश लेनेवालेकी प्रतिज्ञा है।
भावार्थ-आचार्यको आदेश ( आज्ञा ) देनेका अधिकार है वे जिस बातको आदेशरूपसे कहेंगे वह आज्ञा प्रधान रूपसे माननी ही पड़ेगी। परन्तु उपदेशमें आज्ञा प्रधान नहीं होती है।
गृहस्थाचार्य भी आदेश देनेका अधिकारी हैन निषिद्धस्तदादेशो गृहिणां व्रतधारिणाम् । दीक्षाचार्येण दीक्षेव दीयमानास्ति तक्रिया ॥ ६४८ ॥
अर्थ-व्रत धारण करनेवाले जो गृहस्थ हैं उनको भी आदेश निषिद्ध नहीं है। जिस प्रकार दीक्षाचार्य दीक्षा देता है उसी प्रकार गृहस्थ भी आदेश क्रिया करता है।
भावार्थ-आचार्यकी तरह व्रती गृहस्थाचार्य भी गृहस्थोंको आदेश देनेका अधिकारी है ।*
आदेशका अधिकारी अव्रती नहीं हो सक्ता हैस निषिद्धो यथाम्नायादवतिना मनागपि । हिंसकचोपदेशोपि नोपयुज्योत्र कारणात् ॥ ६४९ ॥
अर्थ-शास्त्रानुसार अबती पुरुष आदेश देनेका सर्वथा अधिकारी नहीं है, और किसी भी कारणसे वह हिंसक उपदेश भी नहीं दे सकता।
भावार्थ-अव्रती पुरुष आदेश देनेका अधिकारी तो है ही नहीं, हिंसक उपदेशक देना भी उसके लिये वर्जित है।
बधाश्रित आदेश और उपदेश देनेका निषेधमुनिव्रतधराणां हि गृहस्थव्रतधारिणाम् ।
आदेशश्चोपदेशो वा न कर्तव्यो बधाश्रितः ॥ ६५० ॥
अर्थ-मुनित्रा धारण करनेवाले आचार्योको और गृहस्थत्रत धारण करनेवाले गृहस्थाचार्योको वधाश्रित आदेश व उपदेश ( जिस आदेश तथा उपदेशसे जीवोंका वध होता हो) नहीं करना चाहिये।
* पहले यह प्रथा थी कि गृहस्थ लोगोंको गृहस्थाचार्य हरएक कार्यमें सावधान किया करते थे, गृहस्थाचार्यका आदेश हर एक गृहस्यको मान्य था, इसीलिये धार्मिक कार्यों में शियिलता नहीं होने पाती थी, आजकल वह मार्ग सर्वथा उठ गया है, इसीलिये धार्मिक शैथिल्प, अनर्गलभाषण, एवं निरङ्कुशप्रवृत्ति आदि अनाने पूर्णतासे स्थान पा लिया है।