________________
अध्याय।
सुबोधिनी टीका। भावार्थ-इस इलोकसे भलीभांति सिद्ध होता है कि आचार्य केवल धार्मिक क्रियाओंको करता है, और मुनियोंकी धार्मिक वृत्तियोंका ही वह शासक है । यदि मोहके उद्रेकसे काचित वह किसी लौकिक क्रियाको भी कर डाले तो ग्रन्थकार कहते हैं कि उस काल में वह आचार्य ही नहीं कहा जा सकता है उस समय वह आचार्यपदसे गिर चुका है, अन्तरंग व्रतोंसे विहीन हो चुका है।
___ उपसंहार
उक्तवततपः शीलसंयमादिधरो गणी । नमस्यः स गुरुः साक्षात्तदन्यो न गुरुगणी ॥ ६५८ ॥
अर्थ-उपर्युक्त कथनके अनुसार जो व्रत, तप, शील, संयमादिकका धारण करनेवाला है वही गणका स्वामी आचार्य कहा जाता है, वही साक्षात् गुरु है, वही नमस्कार करने योग्य है । उससे भिन्न स्वरूपका धारण करनेवाला गणका स्वामी आचार्य नहीं कहा जा सकता।
__ उपाध्यायका स्वरूपउपाध्यायः समाधीयान् वादी स्याद्वादकोविदः। वाङ्मी वाग्ब्रह्मसर्वज्ञः सिद्धान्तागमपारगः ॥ ६५९॥ कविव्रत्यग्रसूत्राणां शब्दार्थः सिद्धसाधनात् । गमकोऽर्थस्य माधुर्ये धुर्यो वक्तृत्ववर्मनाम् ॥ ६६० ॥ उपाध्यायत्वमित्यत्र श्रुताभ्यासो हि कारणम् । यदध्येति स्वयं चापि शिष्यानध्यापयेद्गुरुः ॥ ६६१ ॥ शेषस्तत्र व्रतादीनां सर्वसाधारणो विधिः । कुर्याडर्मोपदेशं स नाऽऽदेशं सूरिवत्कचित् ॥ ६६२॥ तेषामेवाश्रमं लिङ्गं सूरीणां संयमं तपः। आश्रयेच्छुडचारित्रं पश्चाचारं स शुद्धधीः ॥६६३॥ मूलोत्तरगुणानेव यथोक्तानाचरोच्चिरम् । परीषहोपसर्गाणां विजयी स भवेद्वशी ॥६६४॥ अत्रातिविस्तरेणालं नूनमन्तबंहिमुनेः।
शुद्धवेषधरो धीमान् निर्ग्रन्थः स गुणाग्रणी ॥६६५॥
अर्थ-प्रत्येक प्रश्नका समाधान करनेवाला, वाद करनेवाला, स्याद्वादके रहस्यका जानकार, वचन बोलनेमें चतुर/ वचन ब्रह्मका सर्वज्ञ, सिद्धान्त शास्त्रका पारगामी, वृत्ति और प्रधान सूत्रोंका विद्वान्, उन वृत्ति और सूत्रोंको शब्द तथा अर्थके द्वारा सिद्ध करनेवाला, अर्थमें मधुरता लानेवाला, बोलनेवाले व्याख्याताओंके मार्गमें अग्रगामी इत्यादि गुणोंका धारी
उ० २२