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अध्याय।
सुबोधिनी टीका। अर्थ-सम्यग्दृष्टिके सम्पूर्ण कर्मोकी निर्जरा होना असिद्ध नहीं है किन्तु दर्शन मोहनीय कर्मका उदयाभाव होनेसे वह क्रमसे असंख्यात गुणी २ होती चली जाती है।
निष्कर्षततः कर्मत्रयं प्रोक्तमस्ति यद्यपि साम्प्रतम् ।
रागद्वेषविमोहानामभावाद्गरुता मता ॥६३६ ॥
अर्थ-इसलिये छद्मस्य गुरुओंमें यद्यपि अभी ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म मौजूद हैं तथापि राग, द्वेष, मोहका अभाव होनेसे गुरूपना माना ही जाता है।
गुरु-भेदयारत्येकः स सामान्यात्तद्विशेषात्रिधा गुरुः। __एकोप्यग्निर्यथा तार्णः पार्णो दाय॑स्त्रिधोच्यते ॥६३७॥ .
• अर्थ-सामान्य रीतिसे एक ही गुरु है और विशेष रीतिसे तीन प्रकार गुरु हैं। जैसे-अग्नि यद्यपि सामान्य रीतिसे एक ही है तथापि तिनकेकी अग्नि, पत्तेकी अग्नि और लकड़ीकी अग्नि, इस प्रकार एक ही अग्निके तीन भेद होजाते हैं।
___तीन प्रकार गुरुओंके नामआचार्यः स्यादुपाध्यायः साधुश्चेति त्रिधा मतः। स्युर्विशिष्टपदारूढास्त्रयोपि मुनिकुञ्जराः ।। ६३८ ॥
अर्थ-आचार्य, उपाध्याय और साधु ( मुनि ) इस प्रकार तीन भेद हैं। ये तीनों ही मुनिवर विशेष विशेष पदों पर नियुक्त हैं अर्थात् विशेष २ पदोंके अनुसार ही आचार्य, उपाध्याय और साधु संज्ञा है।
"मुनिपना तीनोंमें समान हैएको हेतुः क्रियाप्येका वेषश्चैको वहिः समः। तपो द्वादशधा चैकं व्रतं चैकं च पञ्चधा ॥ ६३९॥ त्रयोदश विधं चापि चारित्रं समतैकधा। मूलोत्तरगुणाश्चैके संयमोप्येकधा मतः ॥ ६४० ॥ परीषहोपसर्गाणां सहनं च समं स्मृतम् ।
आहारादिविधिश्चैकश्चर्यास्थानासनादयः॥ ६४१॥ मार्गो मोक्षस्य सदृष्टिानं चारित्रमात्मनः । रत्नत्रय समं तेषामपि चान्तर्वहिस्स्थितम् ॥ ६४२ ॥ ध्याता ध्यानं च ध्येयं च ज्ञाता ज्ञानं च ज्ञेयसात् । चतुर्धाऽऽराधना चापि तुल्या क्रोधादिजिष्णुता ॥ ६४३ ॥