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पञ्चाध्यायी ।
ऐसी आशंका भी नहीं करना चाहिये -
नचाशङ्कयं प्रसिद्धं यन्मुनिभिर्व्रतधारिभिः । f मूर्तिमच्छक्तिसर्वस्वं हस्तरेखेव दर्शितम् ॥ ६५१ ॥ अर्थ — ऐसी भी आशंका नहीं करना चाहिये कि मुनिगण व्रतधारण करनेवाले हैं और उन्होंने मूर्तिमान् पदार्थों की सम्पूर्ण शक्तियों को हस्तरेखा के समान जान लिया है।
भावार्थ - व्रतधारी मुनि मूर्त पदार्थों की समस्त शक्तियोंका परिज्ञान स्वयं रखते हैं उन्हें सम्पूर्ण जीवोंके स्थान, शरीरादिका परिज्ञान है, वे सदा त्रस स्थावर जीवोंकी रक्षा में सावधान स्वयं रहते हैं इसलिये उनके प्रति बधकारी आदेश व उपदेशका निषेध कथन ही निरर्थक है, ऐसी आशंका भी नहीं करना चाहिये ।
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क्योंकि—
नूनं प्रोक्तोपदेशोपि न रागाय विरागिणाम् । रागिणामेव रागाय ततोवश्यं निषेधितः ॥ ६५२ ॥
[ दूसरा
अर्थ — यह बात ठीक है कि जो वीतरागी हैं उनके प्रति बधकारी उपदेश भी रागका कारण नहीं होता है, वह रागियोंके लिये ही रागका कारण होसक्ता है। इसलिये अर्थात् रागियोंके लिये ही उसका निषेध किया गया है।
भावार्थ — उपदेश सदा उन्नत करनेके लिये दिया जाता है; मुनियोंका राग घट गया है, वे निवृत्ति मार्गके अनुगामी हो चुके हैं इसलिये उन्हें सदा विशुद्धमार्गका ही उपदेश देना ठीक है, यदि उनको वाश्रित अर्थात् जिनपूजन आदि शुभ प्रवृत्तिमय उपदेश दिया जाय तो वह उपदेश उनकी निम्नताका ही कारण होगा, इसलिये उन्हें वधाश्रित अर्थात् शुभ प्रवृत्तिमय उपदेश न देकर निवृत्तिमार्गमय उपदेश ही देना चाहिये । परन्तु वधाश्रित उपदेश व आदेशका निषेध गृहस्थोंके लिये दूसरे प्रकारसे है । गृहस्थों में अशुभ प्रवृत्ति भी पाई जाती है इसलिये उस अशुभ प्रवृत्तिका निषेध कर शुभ प्रवृत्तिका उनके लिये आदेश व उपदेश दिया जाता है । गृहस्थ एकदम शुद्ध मार्ग में नहीं जा सकते हैं अतः उनके लिये पहले शुभ मार्ग पर लाने के लिये शुभ मार्गका आदेश तथा उपदेश देना ही ठीक है इसी बात को नीचेके श्लोकसे स्पष्ट करते हैं
गृहस्थों के लिये दानपूजन का विधान --
न निषिद्ध: स आदेशो नोपदेशो निषेधितः ।
नूनं सत्पात्रदानेषु पूजायामर्हतामपि ॥ ६५३ ॥
अर्थ — सत्पात्रोंके लिये दान देनेके विषय में और अरहन्तोंकी पूजाके विषय में न तो आदेश ही निषिद्ध है और न उपदेश ही निषिद्ध है ।
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