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पञ्चाध्यायी।.
[ दूसरा
अभिलाषामें अभीष्टकी सिद्धिका अभावक्वचित्तस्यापि सद्भावे नेष्टसिद्धिरहेतुतः। ...
अभिलाषस्याप्यसद्भावे स्वेष्टसिद्धिश्च हेतुतः ॥ ४३९ ॥ अर्थ-कहीं पर अभिलाषाके होने पर भी बिना कारण इष्ट सिद्धि नहीं होती है। और कहीं पर अभिलाषाके न होने पर भी, कारण मिलने पर अपने अभीष्टकी सिद्धि होजाती है ।
दृष्टान्त-- यशःश्रीसुतमित्रादि सर्व कामयते जगत् । नास्य लाभोऽभिलाषेपि विना पुण्योदयात्सतः ॥ ४४०॥
अर्थ-यश, लक्ष्मी, पुत्र, मित्र आदिकको सभी जगत् चाहता है परन्तु उसकी अभिलाषा होने पर भी बिना पुण्योदयके कोई वस्तु नहीं मिल सक्ती।
और भीजरामृत्युदरिद्रादि नहि कामयते जगत् ।
तत्संयोगो वलादस्ति सतस्तत्राऽशुभोदयात् ॥ ४४१॥
अर्थ-बुढ़ापा, मृत्यु, दरिद्रता आदिको कोई भी आदमी नहीं चाहता है परन्तु बिना चाहने पर भी अशुभ कर्मके उदयसे बुढ़ापा आदिका संयोग अवश्य हो ही जाता है।
विधि और निषेध-- संवेगो विधिरूपः स्यानिषेधश्च निषेधनात् ।
स्याद्विवक्षावशाद्वैतं नार्थादर्थान्तरं तयोः ॥ ४४२॥
अर्थ-संवेग कहीं विधिरूप भी होता है और निषेध करनेसे निषेधरूप भी होता है। जैसी विवक्षा ( वक्ताके कहनेकी इच्छा ) होती है, वैसा ही विधि या निषेधरूप अर्थ ले लिया जाता है । विधि और निषेध, दोनोंमें भेद नहीं है, दोनोंका प्रयोजन एक ही है।
संवेगका लक्षणत्यागः सर्वाभिलाषस्य निर्वेदो लक्षणात्तथा ।
स संवेगोथवा धर्मः साभिलाषो न धर्मवान् ॥ ४४३ ॥
अर्थ-सम्पूर्ण अभिलाषाओंका त्याग करना अथवा वैराग्य ( संसारसे ) धारण करना संवेग है और उसीका नाम धर्म है। क्योंकि जिसके अभिलाषा पाई जाती है वह धर्मधारी कभी नहीं होसक्ता।
किन्तुनापि धर्मः क्रियामात्रं मिथ्यादृष्टेरिहार्थतः । नित्यं रागादिसद्भावात प्रत्युताऽधर्म एव सः ॥ ४४४॥