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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
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होगी ? ऐसी आशंका नहीं करना चाहिये । क्योंकि यह वात प्रमाण सिद्ध है कि सभी क्रियाये बन्धरूप फलको पैदा करने वाली हैं । क्षीणकषाय ( वारहवां गुणस्थान ) से पहले २ अवश्य ही बन्धका कारण संभव है ।
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चाहे सरागी हो चाहे वीतरागी ( क्षीणकषायसे पहले ) हो दोनों में ही औदयिकी (उदयसे होनेवाली) क्रिया होती है और वह क्रिया अवश्य ही बन्धरूप फलको पैदा करनेवाली हैं, क्योंकि मोहनीय प्रकृतियोंमेंसे किसी एकका उदय मौजूद है इसलिये बुद्धिके दोषसे किसीको स्वानुभूतिवाला मत कहो और मत बन्ध - जनक क्रिया करनेवालेकी क्रियाको अबन्ध फला क्रिया बतलाओ । क्योंकि बुद्धिका अविनाभावी सम्यक् विशेषण है । उस सम्यक् विशेवाली बुद्धि (सम्यग्ज्ञान) का अभाव होनेसे दर्शनको दिव्यता - उत्कृष्टता (सम्यग्दर्शनता) कैसे आसक्ती है ?
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उत्तर-
नैवं यतः सुसिद्धं प्रागस्ति चानिच्छतः क्रिया ।
शुभायाश्चाऽशुभायाश्च कोऽवशेषो विशेषभाक् ॥ ५६१ ॥
अर्थ - शंकाकारकी उपर्युक्त शंका व्यर्थ है, क्योंकि पहले यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो चुकी है कि बिना इच्छाके भी क्रिया होती है । फिर शुभ क्रिया और अशुभ क्रियाकी क्या विशेषता बाकी रह गई ?
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भावार्थ - जिस पुरुषको किसी वस्तुकी चाहना नहीं है उसके भी क्रिया होती है । तो ऐसी क्रिया शुभ-अशुभ क्रिया नहीं कहला सक्ती । क्योंकि जो शुभ परिणामोंसे की जाय वह शुभ क्रिया कहलाती है और जो अशुभ परिणामोंसे की जाय वह अशुभ क्रिया कहलाती हैं। जहां पर क्रिया करनेकी इच्छा ही नहीं है वहां शुभ अथवा अशुभ परिणाम ही नहीं बन सक्ते ।
शंकाकार
नन्वनिष्टार्थसंयोगरूपा साऽनिच्छतः क्रिया ।
विशिष्टेष्टार्थसंयोगरूपा साऽनिच्छतः कथम् ॥ ५६२ ॥
अर्थ - शंकाकार कहता है कि जो क्रिया अनिष्ट पदार्थोंकी संयोगरूपा है वह तो नहीं चाहने वाले ही होजाती है । परन्तु विशेष विशेष इप्ट पदार्थोंके संयोग करानेवाली जो क्रिया है वह नहीं चाहने वाले पुरुषके कैसे हो सक्ती है ?
पुनः शंकाकार
सक्रिया व्रतरूपा स्यादर्थान्नानिच्छतः स्फुटम् ।
तस्याः स्वतन्त्रसिद्धत्वात् सिद्धं कर्तृत्वमर्थसात् ॥ ५६३ ॥