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अध्याय।]
सुबोधिनी टीका।
कुगुरु और सुगुरुकुगुरुः कुत्सिताचारः सशल्यः सपरिग्रहः।
सम्यक्त्वेन व्रतेनापि युक्तः स्यात्सदगुरुर्यतः॥ ६०१ ॥
अर्थ-जिसका निन्द्य (मलीन ) आचरण है, जिसके माया, मिथ्या, निदान-शल्य लगी हुई हैं, और जो परिग्रह सहित है वह कुगुरु है, तथा जो सम्यग्दर्शन और व्रत सहित है वह सद्गुरु है।
अबोदेशोऽपि न श्रेयान् सर्वतोतीव विस्तरात् ।
आदेयो विधिरत्रोक्तो मादेयोनुक्त एव सः ॥ ६०२॥
अर्थ-कुधर्म और कुगुरुके विषयमें भी अधिक लिखना लाभकारी नहीं है। क्योंकि इनका पूरा स्वरूप लिखनेसे अत्यन्त ग्रन्थ-विस्तार होने का डर है । इसलिये इस ग्रन्थमें जो विधि कही गई है, वही ग्रहण करने योग्य है, और जो यहां नहीं कही गई है वह त्यागने योग्य समझना चाहिये । भावार्थ-जो विधि उपादेय है, उसीका यहां वर्णन किया गया है और जो अनुपादेय है उसका यहां वर्णन भी नहीं किया गया है।
सच्चे देवका स्वरूप-- दोषी रागादिसद्भावः स्यादावरणकर्म तत् ।
तयोरभावोऽस्ति निःशेषो यत्रासौ देव उच्यते॥ ६०३ ॥
अर्थ--रागादिक वैकारिक भाव और ज्ञानावरणादिक कर्म, दोष कहलाते हैं। उनका जिस आत्मामें सम्पूर्णतासे अभाव हो चुका है, वही देव कहा जाता है ।
अनन्तचतुष्टयअस्त्यत्र केवलं ज्ञानं क्षायिकं दर्शनं सुखम् । वीर्य चेति सुविख्यातं स्यादनन्तचतुष्टयम् ॥ ६०४ ।।
अर्थ-उस देवमें केवलज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक सुख और क्षायिकवीर्य यह प्रसिद्ध अनन्त चतुष्टय प्रकट हो जाता है।
देवके भेदएको देवः स सामान्याद् द्विधावस्था विशेषतः।
संख्या नाम सन्दर्भाद् गुणेभ्यः स्यादनन्तधा ॥ ६०५ ॥
अर्थ-सामान्य रीतिसे देव एक प्रकार है, अवस्था विशेषसे दो प्रकार है, विशेष रचना ( कथन ) की अपेक्षासे संख्यात प्रकार है, और गुणोंकी अपेक्षासे अनन्त प्रकार है।
___ अरहन्त और सिद्ध एको यथा सद्रव्यार्थारिसडेः शुद्धात्मलब्धितः । अर्हन्निति च सिद्धश्च पर्यायार्थाद्विधा मतः ॥ ६०६ ॥